इसमें आश्चर्य की कोई बात भी नहीं है। इन तीनों प्रदेशों की राजनीति जाति से ही संचालित होती है। इस बार भी बहुत ज्यादा अंतर नहीं पड़ा। भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी एक ओबीसी जाति के थे। इसका उसने खूद प्रचार भी किया और इसका उसे फायदा मिला। भारतीय जनता पार्टी ने 1990 में ओबीसी आरक्षण का विरोध किया था, इसके कारण इन प्रदेशों के ओबीसी भाजपा के खिलफ हो गए थे। लेकिन नरेन्द्र मोदी को पीमए उम्मीदवार घोषित कर भाजपा ने अपन इस छवि को समाप्त कर दिया।
इसके अतिरिक्त पिछले दो दशकों की राजनैतिक घटनाओं ने भी भाजपा का साथ दिया। मंडल आंदोलन की मौत हो चुकी थी। बिहार में लालू यादव ओबीसी एकता की जगह मुस्लिम यादव समीकरण की राजनीति कर रहे थे और मुलायम सिंह यादव यही काम उत्तर प्रदेश में कर रहे थे। मायावती ने बहुजन राजनीति का नारा देकर उत्तर प्रदेश के कमजोर ओबीसी को अपने साथ कर लिया था, लेकिन सत्ता में आने के बाद वह मुस्लिम और ब्राह्मण के साथ अपनी जाति जाटव का राजनैतिक समीकरण बनाना शुरू कर दिया। अपनी इस जातिवादी राजनीति को वह किस आक्रामकता के साथ आगे बढ़ा रही थीं, इसका अनुमान इसीसे लगाया जा सकता है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 21 सीटों पर ब्राह्मण और 19 सीटों पर मुसलमानों को टिकट दे डाले। एक समय ’’जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी’’ का नारा लगाने वाली मायावती ने उत्तर प्रदेश की आबादी में 10 फीसदी की हिस्सेदारी करने वाले ब्राह्मणों को टिकट बंटवारे में 27 फीसदी की भागीदारी दे दी और वह सब ओबीसी लोगों की कीमत पर, क्योंकि अनुसूचित जातियों के लिए तो पहले ही उनकी जनसंख्या के आधार पर लोकसभा सीटें आरक्षित हैं।
बिहार में नीतीश कुमार भी कुछ उसी तरह का खेल खेल रहे थे। ओबीसी समर्थन के कारण वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने थे, लेकिन उन पर आरोप लग रहा था कि ओबीसी को भूलकर वे या तो अपनी जाति या अगड़ी जातियों के हितों की राजनीति कर रहे थे और मुस्लिम वोट लेने के लिए उनका तुष्टिकरण कर रहे थे। लालू, नीतीश, माया और मुलायम में एक समानता यह थी कि वे सभी मुस्लिम मतों को पाने की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए थे और ओबीसी मतदाताओं की परवाह नहीं कर रहे थे।
इसके कारण ओबीसी मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा उनके खिलाफ हो गया। नरेन्द्र मोदी के ओबीसी स्टैटस के कारण भाजपा उनके लिए अछूती नहीं रही और उन्होंने भारी संख्या में नरेन्द्र मोदी के उम्मीदवारों को मत दिया। इस चुनाव की एक खासियत यह रही कि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के उम्मीदवार अपने लिए नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी के लिए वोट मांग रहे थे।
नरेन्द्र मोदी की सफलता का एक बड़ा कारण यह भी था कि उनके ओबीसी स्टैटस के प्रचार के बावजूद अगड़ी जातियों के मतदाता उनके खिलाफ नहीं हुए। 1990 के पहले यह संभव नहीं था। लेकिन पिछले दो दशकों की राजनीति ने अगड़ी जातियों के जाति के प्रति सोच को प्रभावित किया है। वे उत्तर प्रदेश में मायावती और मुलायम सिंह यादव को भी वोट डाल चुके हैं। बिहार में उन्होंने नीतीश कुमार को भी मुख्यमंत्री बनाने के लिए वोट डाले थे। यही कारण है कि मोदी के ओबीसी स्टैटस की जानकारी होने के बाद भी मोदी को वोट डालने में कोई परेशानी नहीं हुई। नीतीश, लालू, माया और मुलायम से नरेन्द्र मोदी इस मायने में अलग थे कि ओबीसी होने के बावजूद उन्होंने कभी ओबीसी की राजनीति नहीं की थी। अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने न केवल अपने ओबीसी स्टैटस को उल्लेख किया, बल्कि यह भी कहा कि वे न तो ओबीसी राजनीति करते हैं और न कभी आगे ऐसा करेंगे। इसके कारण अगड़ी जातियों के मतदाता भी उनके खिलाफ नहीं हुए।
ओबीसी जातियों के बीच भी भारी अंतर्विरोध है। पिछले दो दशकों में यह अंतर्विरोध काफी बढ़ गया है। कुछ जातियों का काफी विकास हुआ है और उनका सामाजिक स्तर भी भी ऊंचा हो गया है, जबकि अधिकांश जातियों को इस बात की शिकायत है कि सत्ता पर काबिज दबंग जातियों ने उनकी फिक्र नहीं की। मुसलमानों के साथ राजनैतिक समीकरण बनाकर उनके हितों की अनदेखी करने के भाव से भी वे ग्रस्त रहे। इसलिए इन जातिवादी नेताओं द्वारा सेकुलरिज्म की बात उठाई गई, तो इसका फायदा भाजपा को ही हुआ, क्योंकि ओबीसी जातियों के लोगों को महसूस हो रहा था कि उनके मतों में सत्ता में आए ये जातिवादी नेता मुस्लिमों की फिक्र तो करते हैं, पर उनकी फिक्र नहीं करते।
भारतीय जनता पार्टी ने बहुत ही सुनियोजित तरीके से नरेन्द्र मोदी की जाति, जिसे गुजरात में घांची और मोढ़ घांची व हिन्दी प्रदेशों में तेली कहा जाता है, का इस्तेमाल किया। यह जाति देश के सभी राज्यों में ओबीसी है। इसके कारण बिहार और उत्तर प्रदेश के चारों जातिवादी नेताओं को नुकसान हुई। कमजोर ओबीसी जातियों के लोगांे ने भारी संख्या में मतदान में हिस्सा लिया। भारी मतदान होने के कारण मुस्लिम यादव समीकरण से पड़े वोट काम नहीं आए। इसका कारण यह है कि 45 फीसदी मतदान की स्थिति में मुस्लिम यादव समीकरण जिताऊ हो सकता है, लेकिन 60 फीसदी मतदान होने की स्थिति मे सिर्फ मुस्लिम यादव या दलित मुस्लिम वोट चुनाव नहीं जिता सकते। उनकी सम्मिलित संख्या पर ओबीसी के शेष मतों की संख्या भारी हो जाती है।
उत्तर प्रदेश में अगड़ी जाति के लोगों ने भाजपा को भी छोड़ दिया था, लेकिन पिछले चुनाव में उन्होंनें भाजपा का साथ दिया। साथ देने के पीछे नरेन्द्र मोदी के करिश्माई नेतृत्व का हाथ तो था ही, वे मुलायम और मायावती की राजनीति से भी ऊब गए थे और पार्टियों के बीच मुस्लिम मतों के लिए चल रही फूहड़ प्रतिस्पर्धा भी उन्हें पसंद नहीं आ रहा था।
इसलिए यह कहना गलत होगा कि लोग जाति से ऊपर उठ गए थे। कुछ लोगों के लिए तो ऐसा कहा जा सकता है, खासकर अगड़ी जाति के उन लोगों के लिए जो ओबीसी स्टैटस होने के बावजूद नरेन्द्र मोदी के समर्थन में चट्टान की तरह खड़े थे, पर ओबीसी के बहुसंख्यक मतदाताओं ने मोदी को वोट उनके ओबीसी स्टैटस के कारण ही दिया। (संवाद)
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भाजपा की यह रिकार्ड तोड़ जीत क्यों?
जाति समीकरण उसके अनुकूल थी
उपेन्द प्रसाद - 2014-05-22 04:13
कुछ राजनैतिक विश्लेषकांे का कहना है कि पिछले लोकसभा चुनाव में लोगों ने जाति की दीवारें तोड़ दीं और इसके कारण भारतीय जनता पार्टी की रिकार्ड तोड़ जीत हुई। लेकिन सचाई यह नहीं है। सचाई यह है कि जातीय समीकरण भारतीय जनता पार्टी के पक्ष मे थे, इसलिए उसकी जीत हुई। उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड की 134 लोकसभा सीटों में से भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को 116 सीटें मिलीं। भाजपा को खुद 105 सीटें मिली। यदि शेष 11 सीटों पर भी भाजपा के ही उम्मीदवार होते, तो भी उन क्षेत्रों से वे ही जीतते।