कांग्रेस गर्त में जा रही है, इसका संकेत तो उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ही लग चुका था। प्रदेश की सत्ता पर कब्जा करने का अभियान तीन साल पहले से ही चल रहा था और इसकी अगुवाई खुद राहुल गांधी कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस उस चुनाव मंे बुरी तरह पिटी। कहा गया कि कांग्रेस की हार संगठन की कमजोरी के कारण हुआ। फिर 2013 में विधानसभा के चुनाव हुए। कांग्रेस वहां भी पिटी। दिल्ली में तो वह पहली बार तीसरे नंबर की पार्टी बन गई। उसके बाद भी पार्टी नेताओं की समझ नहीं खुली। आखिर क्यों?
कांग्रेस की दुर्दशा का हाल यह है कि यह लोकसभा में विपक्ष के नेता की हैसियत भी नहीं प्राप्त कर सकती। इसके लिए उसके पास 55 लोकसभा सांसद होने चाहिए, पर उसके पास मात्र 44 ऐसे सांसद हैं। 193 लोकसभा क्षेत्रों मे इसके उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो चुकी है। कम से कम 10 राज्यों और सभी केन्द शासित प्रदेशों मंे इसे एक भी सीट नहीं मिली। देश के किसी भी राज्य में इसके विजयी उम्मीदवारों की संख्या दहाई अंक में नहीं पहुंची है। पिछले 25 सालों से यह देश के अनेक मुख्य राज्यों में सत्ता में नहीं है। इस तरह के राज्यों में 205 लोकसभा सीटें हैं। पार्टी की इस दुर्दशा को देखकर यही लगता है कि पार्टी को बचाने के लिए एक बड़े आपरेशन की जरूरत है। अभी कुछ ही महीने में कांग्रेस शासित दो प्रदेशों महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव होने वाले हैं। झारखंड में भी विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। वहां कांग्रेस झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ पावर शेयर कर रही है। दिल्ली में भी विधानसभा के चुनाव हो सकते हैं।
कांग्रेस को इस बात का अहसास होना चाहिए कि आज देश भर में उसके खिलाफ गुस्सा है। इसका फायदा उठाते हुए नरेन्द्र मोदी ने अपने आपको इस तरह तैयार किया कि देश भर में उनको व्यापक सहयोग मिला। कांग्रेस को इस बात का भी अहसास होना चाहिए कि वह न केवल जनता से कट गई है, बल्कि कांग्रेस पार्टी का कांग्रेस नेताओं के साथ भी संबंध विच्छेद हो गया है। कांग्रेस नेताओं के अहंकार के शिकार न केवल देश की जनता हो रही है, बल्कि कांग्रेसी कार्यकत्र्ता भी उसके शिकार हैं। वे पार्टी के नेताओं से मुलाकात करने की औकात तक नहीं रखते। छोटे स्तर के नेता बड़े स्तर के नेता से नहीं मिल पाते। सांसद भी राहुल गांधी से चाहकर भी नहीं मिल सकते। इसके कारण पार्टी कार्यकत्र्ताओं का पार्टी से मोहभंग हो रहा है। इस तरह की संवादहीनता पार्टी को समाप्त कर रही है।
यह पहली दफा नहीं है, जब पार्टी ने सत्ता खोई है, लेकिन इतनी बुरी हार उसे कभी नहीं मिली। वह हारी है, जबकि तीन क्षेत्रीय दलों को अपने अपने राज्यों में शानदार सफलता मिली है। तृणमूल कांग्रेस ने पश्चिम बंगाल में, बीजू जनता दल ने ओडिसा में और आल इंडिया अन्ना डीएमके ने तमिलनाडु में भारी सफलता पाई हैै। अब नये राजनैतिक खिलाड़ी भी पैदा हो गए हैं। केजरीवाल और जगनमोहन रेड्डी जैसे नेता कांग्रेस की नाक में आगे भी दम करते रहेंगे। कांग्रेस नेतृत्व के पास इनकी चुनौतियों का सामना करने की समझ तक नहीं है।
यदि कांग्रेस को बचना है, तो इसे समस्या की जड़ में जाना होगा। पिछले चुनाव में जिनकी सलाह पर रणनीतियां तय की गइ्र्रं, उन्हें पार्टी से बाहर करना होगा और अपनी कार्य संस्कृति में बदलाव करना होगा। (संवाद)
भारत
वंश कांग्रेस की समस्या का समाधान नहीं
आमूलचूल बदलाव ही कांग्रेस को बचा सकता है
कल्याणी शंकर - 2014-05-23 17:16
कांग्रेस के अन्दर बदलाव की चाहे जितनी बात हो, लेकिन बदलता कुछ नहीं है। अपनी सबसे शर्मनाक पराजय के बाद कांग्रेस में जिस तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जा रही हैं, उससे इस बात की पुष्टि होती है। यह सच है कि कोई यह उम्मीद नहीं करता कि कांग्रेस नेहरू खानदान से छुटकारा पा लेगा, क्योंकि यही पार्टी को एक करके रखता है। यही कारण है कि खानदान की गिरती साख के बावजूद कांग्रेस पर यह खानदान हावी है। यह खानदान अब पार्टी की जीत सुनिश्चित नहीं कर सकता। उसके उम्मीदवारों को वोट भी नहीं दिला सकता, लेकिन पार्टी को एक रखने की क्षमता अभी भी इसमें शेष बची हुई है। इसलिए नेतृत्व में बदलाव भी इस समय कोई विकल्प नहीं है। कांग्रेस के लिए आज जरूरी यह है कि इसमें आमूलचूल बदलाव हो।