मई 2010 के एक सुप्रीम कोर्ट के आदेश के कारण केन्द्र सरकार के हाथ बंध गए हैं। उस आदेश मे ंसुप्रीम कोर्ट ने राजनैतिक कारणों स राज्यपाल को हटाए जाने की प्रवृति के खिलाफ टिप्पणी की थी। उसका कहना था कि नई सरकार के गठन के बाद किसी राज्यपाल को मात्र इसलिए ही नहीं हटाया जा सकता, क्योंकि वह किसी और पार्टी से जुड़ा रहा है। आदेश में कहा गया था कि राज्यपाल की नियुक्ति 5 साल के लिए होती है और तय समय से पहले हटाने के लिए ठोस कारण होने चाहिए। महज पूर्व राजनैतिक प्रतिबद्धता किसी को राज्यपाल से हटाए जाने का कारण नहीं हो सकती।
सच यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी ने ही राजनैतिक कारणों से राज्यपालों के हटाए जाने की प्रवृति के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी। 2004 के लोकसभा चुनाव में सत्ता में आने के बाद यूपीए सरकार ने अपनी पूर्ववर्ती वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त संघ पृष्ठभूमि के चार राज्यपालों को बर्खास्त कर दिया था। उनमें से विष्णुकांत शास्त्री उत्तर प्रदेश, कैलाशपति मिश्र गुजरात, बाबू परमानंद हरियाणा और केदार नाथ साहनी गोवा के राज्यपाल थे। याचिकाकर्ता की ओर से दलील देते हुए सोली सोराबजी ने कहा था कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों को चुनावी राजनीति के कारण बलि का बकरा नहीं बनाया जाना चाहिए। उन्होंने राज्यपालों के लिए एक तय समय सीमा रखने की मांग की थी।
अब भारतीय जनता पार्टी के सामने वही समस्या हे, जो 2कृ4 मे कांग्रेस के सामने थी। केन्द्र की सत्ता बदल गई है और नई सरकार की नजर राज्यपालों पर टिकी हुई है। लेकिन इस समय भारतीय जनता पार्टी थोड़ी सतर्कता दिखा रही है और वह राज्यपालों को हटाने की हड़बड़ी नहीं दिखा रही है।
यदि वर्तमान राज्यपालों के बचे हुए कार्यकाल पर नजर दौड़ाएं तो देखते हैं कि कम से कम छह राज्यपालों की कार्यावधि अगले एक या दो महीने मे ंसमाप्त होने जा रही है। वे राज्यपाल हैं कर्नाटक के हंसराज भारद्वाज, उत्तर प्रदेश के बी एल जोशी, ओडिसा के एससी जमीर, राजस्थान की मार्गरेट अल्वा, हरियाणा के जगन्नाथ पहाड़िया, और त्रिपुरा के देवानंद कुंवर। उन्हें अपना कार्यकाल पूरा करने दिया जा सकता है।
लेकिन जिनकी कार्यावधि अभी बहुत बची हुई है, उनका क्या होगा? क्या वे अपनी अवधि पूरी कर पाएंगे या उन्हें पहले ही हटा दिया जाएगा। दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पिछले मार्च महीने में ही केरल की राज्यपाल बनाई गई थी। उनका हटाया जा सकता है। कुछ ऐसे राज्यपाल भी हैं, जिनका कार्यकाल 6 से 8 महीने तक बचा हुआ है। उनके बारे में अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। वैस राज्यपालों मे गुजरात की कमला बेनीवाल भी शामिल हैं। जब नरेन्द्र मोदी वहां के राज्यपाल थे, तो दोनों के बीच संबंध बहुत ही तनावपूर्ण थे। असम के राज्यपाल जेबी पटनायक, पंजाब के शिवराज पाटिल और हिमाचल की उर्मिला सिंह भी उन राज्यपालों में शामिल हैं, जिनकी कार्यावाधि 6 से 8 महीने बची हुई है।
कुछ राज्यपालों की कार्यावधि बहुत बची हुई है। उनके बारे में निर्णय करना भी मोदी सरकार के लिए आसान नहीं होगा। अनेक ऐसे राज्यपाल भी हैं, जो पहले नौकरशाह थे या सेना में थे। उनके बारे में भी मोदी सरकार को निर्णय लेना है। उनमें से कुछ को तो सरकार अपने पदों पर बनाए रखेगी और कुछ को जाने के लिए कह देगी और यदि कहा नहीं माना गया, तो उन्हें बर्खास्तगी का सामना भी करना पड़़ सकता है। (संवाद)
भारत
राज्यपालों पर मोदी की नजर
कुछ को इस्तीफा देने के लिए कहा जा सकता है
हरिहर स्वरूप - 2014-06-02 15:13
कांग्रेस सिकुड़कर लोकसभा में 44 सीटों तक सीमित हो गई है, लेकिन कांग्रेसी इस समय कम से कम 18 राज्यों में राज्यपाल के पदों पर विराजमान हैं। क्या नरेन्द्र मोदी सरकार के लिए उन्हें हटाना संभव हो पाएगा? सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश की पृष्ठभूमि में उन्हें हटाना आसान नहीं होगा। लेकिन पुराने अनुभवों देखते हुए उन्हें बर्खास्त करने की आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता। पहले तो उन्हें इस्तीफा देने के लिए का जा सकता है और वैसा नहीं करने पद उन्हें उनके पदों से हटाने का आदेश जारी किया जा सकता है।