36 सीटों के साथ तृणमूल को अपने प्रदर्शन पर संतोष हो सकता है, लेकिन देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने का उसका सपना धराशाई हो गया है। जयललिता की पार्टी को यह सौभाग्य मिला है। ममता को लगता था कि चुनाव के बाद उनकी पार्टी केन्द्र सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगी। लेकिन यह तब संभव होता, जब लोकसभा त्रिशंकु होता, पर राष्ट्रीय जनतां़त्रिक गठबंधन को 60 फीसदी से ज्यादा और अकेली भाजपा को 50 फीसदी से ज्यादा सीटों पर जीत हासिल हुई। इसके कारण ममता का केन्द्र सरकार के गठन में निर्णायक भूमिका निभाने का सपना भी सपना ही रह गया।

इससे भी बड़ी बात तृणमूल के लिए यह हुई है कि अब पश्चिम बंगाल मंे भी उसे भारतीय जनता पार्टी की चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। यहां भारतीय जनता पार्टी की उपस्थिति लगभग नगण्य हुआ करती थी। तृणमूल की सहायता से ही 1999 में इसके कुछ सांसद चुने गए थे। 2009 में इसके एक सांसद गोरखा आंदोलनकारियों की सहायता से चुने गए थे। संख्या की लिहाज से इस बार भी इसके मात्र दो सांसद ही चुनान जीत सके हैं, इसे भारी संख्या में मत मिले हैं।

2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 4 से 5 फीसदी के बीच में ही मत मिले थे, लेकिन इस बार उसे 17 फीसदी मत मिले हैं। यानी पिछले 5 साल में भाजपा के मत का प्रतिशत 4 गुना बढ़ गया है। ऐसा नरेन्द्र मोदी के कारण हुआ है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी में इससे खासा उत्साह है और वह अपनी इस उपलब्धि को स्थाई बनाने की रणनीति पर काम कर रही है।

कांग्रेस की स्थिति तो पहले से ही खराब थी। तृणमूल ने उसे पश्चिम बंगाल में तीसरे नंबर की पार्टी बना दिया था। पर पिछले चुनाव में वाम दलों की स्थिति भी दयनीय हो चुकी है। उसे भाजपा से 12 फीसदी मत ज्यादा मिले हैं, लेकिन वह पतन की ओर मुखातिब है, जबकि उससे कम मत पाकर भी भाजपा उत्थान की ओर मुखातिब है। आने वाले समय में वाम दलों के और भी पतन होने की संभावना है।

साफ लगा रहा है कि अब पश्चिम बंगाल की राजनीतिक लड़ाई तृणमूल और भाजपा के बीच ही होनी है और वाम पार्टियां और कांग्रेस हाशिए की ओर खिसकती जा रही है। यह तृणमूल के लिए बहुत बड़ी चुनौती होगी, क्योंकि वह वाम पार्टियों से तो लड़ना जानती है, पर भाजपा से लड़ना उसके लिए नया अनुभव होगा।

लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान तृणमूल नेताओं को भाजपा के बढ़ते जनाधार का अहसास हो गया है। वे उसकी काट करने के लिए अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने लगे। पार्टी में कुछ ऐसे नेता भी थे, जो चाहते थे कि भाजपा और नरेन्द्र मोदी के लिए असभ्य और अभद्र भाषा का उपयोग नहीं हो, लेकिन ममता को वह सुझाव अच्छा नहीं लगा और उन्होंने श्री मोदी के खिलाफ अपशब्दों की बरसात कर दी।

सवाल उठता है कि तृणमूल की आगे की रणनीति क्या होगी? भाजपा की एक स्थायी शक्ति बन जाने के कारण अब यहां की राजनीति का मुद्दा भी बदलने वाला है। (संवाद)