उनकी बात मानी जाए तो अब राजनीति में जितने अथक परिश्रम की आवश्यकता है उनका स्वास्थ्य उन्हें उसकी इजाजत नहीं देता और डाॅक्टरों ने शरीर को आराम देने की सलाह दी है। अगर अमर सिंह का कहना सही है तो भारतीय राजनीति के लिए यह अनोखी घटना ही होगी। यहां तो मरते दम तक कोई राजनीति का दामन नहीं छोड़ना चाहता। अटल बिहारी वाजपेयी स्वास्थ्य कारणों से अवश्य सक्रिय राजनीति से अलग हो गए, पर उनके पास कोई चारा नहीं था। वे कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं थे। जार्ज फर्नांडीस का उदाहरण हमारे सामने है। उनकी स्मृति केवल कुछ घंटे के लिए वापस आती है और शारीरिक एवं मानसिक रूप से कुछ करने की स्थिति में नहीं है, पर वे पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी द्वारा टिकट न दिए जाने के बावजूद बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे। पराजय के बाद जब पार्टी ने राज्य सभा में जाने का आॅफर दिया तो वे तैयार हो गए एवं इस समय संासद हैं। स्व. अब्दुल गनी खान चैधरी को लोग ह्वील चेयर पर बैठे और किसी प्रकार कुछ शब्द बोलते हुए लोकसभा चुनाव लड़ते देखते थे। इसकी लंबी श्रृंखला है। इसमें अमर सिंह जैसा व्यक्ति, जिसकी सांसों में राजनीति बस गई है, अगर स्वास्थ्य के कारणों से पद मोह का परित्याग करता है तो निश्चय ही यह अनहोनी घटना होगी।
किंतु अमर सिंह चाहे जितना विश्वास दिलाने की कोशिश करें, उनके कथन पर यकीन करने वाला शायद ही कोई होगा। हालांकि सिंगापुर में इलाज कराने के बाद वहां से उन्होंने स्वास्थ्य एवं परिवार पर ज्यादा ध्यान देने की इचछा व्यक्त की थी, लेकिन पिछले कई महीनों से वे इसकी चर्चा तक नहीं कर रहे थे। देश ने उन्हें राज्य सभा में अपने परंपरागत आक्रामक अंदाज में देखा है। वे बीमारी के कारण शरीर से कितने लाचार हो चुके हैं, इसका अनुभव तो वे ही कर रहे होंगे, हम चाहेंगे कि वे लंबी जिन्दगी जिएं एवं सदा स्वस्थ रहें, लेकिन सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव एवं उनके दूसरे करीबियांे ने कभी यह संकेत नहीं दिया कि बीमारी अमर सिंह को अब उतना सक्रिय होने नहीं दे रही, इसलिए वे सारी राजनीतिक जिम्मेवारियांे से मुक्त होना चाहते हैं। अमर सिंह ऐसे व्यक्ति नहीं माने जाते, जो अपनी भावना को लंबे समय तक छिपाएं रहें। वे कह रहे हैं कि मेरा परिवार, मेरे बच्चों को मेरा समय चाहिए। ये बातें पहले से लागू हैं। जिस तरह त्यागपत्र देने के बाद वे टी. वी. चैनलांे पर पूरी ओजस्विता से अपनी बात रख रहे थे, उसमें रुग्नता की झलक नहीं थी। पिछले सत्र में ही वे भाजपा के एस. एस. अहलुवालिया से जिस प्रकार भिड़े और बाद में खेद प्रकट किया, उससे तो ऐसा लगता ही नहीं था कि वाकई बीमारी ने उन्हें लाचार बना दिया है। वे जितने बीमार थे उसमें स्वास्थ्य के प्रति चिंता स्वाभाविक है, किंतु सपा पर नजर रखने वाले जानते हैं कि उनके वर्तमान रवैये का कारण कुछ और है।
वास्तव में यह उत्तर प्रदेश की बदलती राजनीतिक भूमि और उसके प्रभाव मंें सपा के अंदर कायम द्वंद्व के गहराने की परिणति है। अमर सिंह ने राम गोपाल यादव के पत्र का हवाला दिया है। उनके अनुसार उस पत्र में राम गोपाल यादव ने उन्हें लिखा है कि सपा के नेता मुलायम सिंह एवं जनेश्वर मिश्र है और अमर सिंह केवल सहयोगी हैं। पत्र में उन्हांेने अमर सिंह के नाम के पहले श्री एवं बाद में जी तक नहीं लगाया है। अमर सिंह ने साफ कहा कि इससे उन्हें दुख पहुंचा है। मेरे नाम को श्रीहीन एवं जीहीन नहीं करते तो मुझे इतना कष्ट नहीं होता। साफ है कि तत्काल उनकी नाराजगी राम गोपाल यादव के पत्र को लेकर है। वे राम गोपाल यादव के बारे में जो कुछ बोलते रहे उनसे ऊपरी तौर पर तो सम्मान प्रकट होता था लेकिन उसमें उन्हें घेरने की रणनीति भी थी। मसलन, उन्होंने बार- बार कहा कि विधान परिषद चुनाव में रामगोपाल यादव जी के नेतृत्व में पार्टी बहुत अच्छा प्रदर्शन करेगी। साफ है कि अगर प्रदर्शन अच्छा नहीं हुआ तो इसकी जिम्मेवारी राम गोपाल यादव के सिर जाएगी। वास्तव में राम गोपाल यादव का पत्र अपने- आप में कारण नहीं, लक्षण है। इसमें जिस प्रकार की भाषा प्रकट की गई है उससे सपा नेताआंे के आपसी रिश्तों का सच उजागर होता है। इसे सपा में अमर सिंह को केन्द्र बनाकर चल रहे अंदरुनी सत्ता संघर्ष का अंग भी कहा जा सकता है। सपा में अमर सिंह के उभार और मुलायम सिंह यादव के सबसे निकट के सलाहकार होने के बाद से ही दूसरे नेता असंतुष्ट होते रहे। राज बब्बर ने पार्टी छोड़ते समय केवल अमर सिंह को निशाना बनाया था। आजम खां ने पिछले लोकसभा चुनाव में जया प्रदा से ज्यादा अमर सिंह पर हमला बोला था। उस समय पार्टी के अनेक नेताओं की सहानुभूति आजम खां के साथ थी, लेकिन अमर सिंह ने स्वयं को अलग हटाने की घोषणा की और मुलायम सिंह ने उनका पक्ष लेते हुए आजम खां को निष्काषित कर दिया।
जब फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम सिंह की पुत्रवधु और अखिलेश यादव की पत्नी डिम्पल यादव राज बब्बर से पराजित हो गई, तब भी कुछ लोगों न अमर सिंह पर उंगली उठाई। लेकिन अमर सिंह ने उस चुनाव से ही स्वयं को अलग कर लिया। उन्होंने कहा कि यह पार्टी प्रबंधन की विफलता है। उनके अनुसार अखिलेश यादव जीत को सुनिश्चित मानकर अति आत्मविश्वास से भरे थे और उन्हें जितना सतर्क होना चाहिए नहीं हुए। पार्टी के अंदर तीखी प्रतिक्रिया हुई, पर अखिलेश यादव ने कहा कि अमर सिंह उनके चाचा हैं, इसलिए वे इस पर कुछ नहीं बोलेंगे। उस समय भी मुलायम सिंह ने अमर सिंह के खिलाफ कुछ नहीं कहा। किंतु विधान परिषद चुनाव में अमर सिंह से कोई सलाह तक नहीं ली गई एवं रामगोपाल यादव का पत्र उनके द्वारा कुछ पूछे जाने की प्रतिक्रिया में ही आई। साफ है कि अगर विधान परिषद चुनाव में अमर सिंह की पहले के समान प्रमुख भूमिका होती या ऐसा न होने पर भी राम गोपाल यादव उनसे सीधे एक साथी की तरह बात करते तो उनके लिए इस्तीफा देने का आधार नहीं बनता। लेकिन जब पार्टी में निजी घृणा और द्वेष चरम की ओर अग्रसर हो तो फिर सामंजस्यपूर्ण बातचीत की गुंजाइश बचती ही कहां है। साफ है कि अगर बीमारी के कारण डाॅक्टरों ने उन्हें आराम की सलाह दी भी है, तो यह इस्तीफा उससे प्रेरित नहीं है।
सपा में अमर सिंह के कारण असंतोष पहले से है, जो समय- समय पर प्रकट होता है। अमर ंिसंह के स्वाभाविक आलोचकों एवं उन्हें नापसंद करने वालों की बड़ी संख्या इस देश में है और वे जो कारण बताते हैं, वे गैर वाजिब भी नहीं दिखते, लेकिन उनका स्वभाव ऐसा है कि वे जिसके साथ जुड़ते हैं, धीरे-धीरे उसके लिए अपरिहार्य बन जाते हैं। केवल राजनीतिक नहीं, व्यक्तिगत स्तर पर भी अमर ने मुलायम एवं उनके परिवार के लिए जितना कुछ किया है, उसके कारण कोई उनका सहसा परित्याग नहीं कर सकता। यह बात अमर को भी मालूम है। मुलायम एवं अमर के बीच कई कारणों से अब निजी रिश्ते इतने गहरे हैं कि इनके लिए बिल्कुल अलग हो जाना आसान नहीं है। 30 नवंबर 2009 को अमर सिंह ने स्वयं कहा था कि मुलायम सिंह यादव एवं वे दो शरीर लेकिन एक जान है। जाहिर है, इससे अमर का सपा के साथ रिश्ते का अंत नहीं मानना चाहिए। इसमंे बीच का रास्ता निकलने की गुंजाइश बची हुई है। वैसे भी अमर ने ऐसा कुछ नहीं कहा है जिससे उन्हें पार्टी से अलग करने का आधार बने। वे बार-बार कहते रहे कि सपा में वे बने हुए हैं, कोई व्यक्ति अपरिहार्य नहीं होता, जो नेता हैं उनके नेतृत्व मंे पार्टी आगे बढ़ती रहेगी, चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करेगी...आदि आदि। इसलिए यह तो संभव है कि तत्काल वे पद मुक्त रहें, पर भविष्य में उनकी भूमिका का आधार कायम रहेगा। यह आगामी चुनाव के परिणामों पर भी निर्भर करेगा। किंतु एक ओर मायावती एवं दूसरी ओर कांग्रेस के राजनीतिक प्रसार की चुनौती का सामना करने वाली पार्टी के अंदर का यह द्वंद्व सपा के चिंताजनक भविष्य का सूचक है। (संवाद)
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अमर सिंह का इस्तीफा सपा के चिंताजनक भविष्य का सूचक
अवधेश कुमार - 2010-01-09 10:41
भारतीय राजनीति में जो नेता पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से किसी न किसी कारण हमेशा चर्चा मंे रहे हैं, उनमें अमर सिंह का नाम प्रमुख है। समाजवादी पार्टी के सभी पदों से त्यागपत्र देकर वे फिर सुर्खियों में आ गए हैं। उनके इस्तीफे का अर्थ क्या है?