गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही देश की बड़ी आबादी को पौष्टिक आहार मुहैया कराना सरकार और नीति निर्धारकों के लिए हमेशा एक चुनौती रहा है। दालें भी इस समय आसमान को छू रही हैं, ऐसे में दाल-रोटी भी गरीबों के लिए सपना बनती जा रही है। ऐसे में प्रोटीन से भरपूर सोयाबीन पौष्टिक दलहन के रूप में बेहतर शानदार बन सकती है जो मूल्य के लिहाज से आम लोगों की पहुंच में भी है। लेकिन इस ओर ध्यान न देकर सरकार न केवल शाकाहारी उपभोक्ताओं के साथ अन्याय कर रही है जबकि इसके उत्पादक किसानों के साथ ही वह सही नहीं कर रही है।

जानकारों के मुताबिक दाल, मीट, चिकन, अंडे और मछली से भी उतना प्रोटीन नहीं मिलता है, जितना प्रोटीन सोयाबीन से मिलता है। मीट में जहां 26 फीसदी प्रोटीन होता है, वहीं सोयाबीन में इससे कहीं ज्यादा 45 से 50 फीसदी प्रोटीन होता है। तमाम तरह की दालों (सोयाबीन को छोड़कर) के सबसे बडे उत्पादक होने के बावजूद भारत में इतना उत्पादन नहीं हो पाता है कि जितनी देश में खपत है। भारत में हर वर्ष 146.6 लाख टन दालों का उत्पादन करता है फिर भी वर्ष 2009 में 15 लाख टन दालों का आयात किए जाने का अनुमान है। बढ़ती मांग को पूरी करने के लिए देश को अगले वर्षो में 40 लाख टन अतिरिक्त दालों की जरूरत होगी।

ऐसे में यदि सरकार गरीबों की पोषण संबंधी जरूरतों को लेकर गंभीर है तो उसे सोयाबीन के उत्पादन को बढ़ावा देना होगा लेकिन दुर्भाग्य से इस तरफ कभी ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया। सरकार इसे तिलहन की फसल के रूप में ज्यादा और प्रोटीन से भरपूर दलहन फसल के रूप में कम देखती है। लेकिन ब्राजील, चीन, अर्जेंटीना, इंडोनेशिया, कनाडा, पराग्वे और इटली में भारत जैसी स्थिति नहीं है। वहां सोयाबीन को पौष्टिक आहार का दर्जा मिला है। ब्राजील में छोटे किसानों को सोयाबीन सहित भरपूर प्रोटीन वाली फसलों की बुवाई के लिए प्रेरित किया जाता है ताकि गरीबों की पौष्टिक भोजन की जरूरतें पूरी की जा सकें। ब्राजील सरकार जीरो हंगर प्रोग्राम और 14 साल तक के स्कूल छात्रों के लिए मिड-डे मील योजना चलाती है जिसमें प्रोटीन युक्त भोजन ज्यादा दिया जाता है। इसमें सोयाबीन प्रमुख है। ब्राजील सरकार किसानों से अच्छे मूल्य पर सोयाबीन खरीदती है। सरकार विभिन्न योजनाओं के तहत सब्सिडी देती है। वहीं, चीन में भी सोयाबीन पारंपरिक पोषक आहार माना जाता है।

उत्पादकों को सरकार पूरी मदद करती है। चीन के पड़ोसी देशों कोरिया और जापान में भी सोयाबीन का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है और सोयाबीन वहां के लोगों के भोजन में प्रमुख स्थान पाती है। जापान में किसानों को सोयाबीन उत्पादन में सरकार मदद करती है। सबसे ज्यादा क्षेत्र में सोयाबीन की खेती वाले अमेरिका में विभिन्न रूपों में सोयाबीन के उत्पाद खाए जाते हैं। प्रोसेसिंग के जरिये सोयाबीन से बिस्कुट, सोया मिल्क और अन्य पारंपरिक खाद्य वस्तुएं बनाई जाती हैं। दूसरी ओर भारत में सोयाबीन का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) अन्य दालों और तिलहनों के मुकाबले काफी कम है। काली सोयाबीन का एमएसपी 1350 और पीली सोयाबीन का 1390 रुपये प्रति क्विंटल है।

विभिन्न श्रेणी की दालों का एमएसपी सोयाबीन के मुकाबले काफी ज्यादा है। अरहर का एमएसपी 2300 रुपये, मूंग का 2760 रुपये और उड़द का 2520 रुपये प्रति क्विंटल है। सोयाबीन उत्पादक किसानों को सरकारी नीतियों से काफी कम फायदा पहुंचता है। तिलहन के रूप में भी सोयाबीन की अहमियत कम है क्योंकि इसमें तेल की मात्रा केवल 18 फीसदी होती है। दलहन का दर्जा तो इसे मिला ही नहीं है जबकि दूसरी दालों की तरह इसमें प्रोटीन भरपूर मात्रा में है।

भारत में पिछले साल 96 लाख हैक्टेयर में सोयाबीन की बुवाई हुई थी, जिसमें 108 लाख टन उत्पादन किया गया। भारत उत्पादन के मामले में अमेरिका, ब्राजील, चीन, अर्जेंटीन, इंडोनेशिया, कनाडा, पराग्वे और इटली से पीछे है। ये देश न केवल सोयाबीन से बने उत्पादों का बड़े पैमाने पर उपभोग कर रहे हैं, बल्कि वैश्विक बाजार में निर्यात भी कर रहे हैं। भारत में सोयाबीन को दलहन का दर्जा मिले और इसे इसी रूप में बढ़ावा दिया जाए तो दलहन की कमी पूरी की जा सकती है। लेकिन इसके लिए किसानों को बेहतर मूल्य देकर इसकी खेती के लिए प्रोत्साहित करना होगा। तिलहन की उत्पादकता भी बढ़ाने की जरूरत है, जो फिलहाल 1124 किलोग्राम प्रति हैक्टेयर पर ठहरी हुई है। देश में सोयाबीन का उत्पादन मुख्य रूप से मध्य प्रदेश, राजस्थान, आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में होता है। #