यही कारण है कि जब कभी भी केन्द्र में सत्ता बदलती है, तो राज्यपालों के बदलने का भी दौर शुरू हो जाता है। वे राज्यपाल पिछली सरकार द्वारा नियुक्त किए गए होते हैं, इसलिए नई सरकार को उनका अपने पदों पर बने रहना नागवार गुजरता है। यही नहीं उनके पास कुछ अपने लोग होते हैं, जिन्हें वे राज्यपाल के पद पर बैठाना चाहते हैं। इसके लिए भी उनके लिए जरूरी हो जाता है कि पद पर पहले से बैठे राज्यपालों को वे हटा दें।

जब पहली बार 1977 में एक गैरकांग्रेसी सरकार ने सत्ता संभाला था, तो उस समय इन्दिरा गांधी की पूर्ववर्ती सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों को नवगठित जनता पार्टी की सरकार ने हटा दिया था। उनकी जगह अपने राज्यपाल नियुक्त किए गए थे और उनसे सिफारिश लेकर कांग्रेस की अनेक राज्यों में काम कर रही राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था। 1980 में दुबारा सत्ता में आकर श्रीमती गांधी ने भी वही किया। उन्होंने भी जनता पार्टी द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों को हटा दिया और उसकी राज्य सरकारांे को भी भंग कर दिया गया।

भारत में संघीय व्यवस्था है और इस व्यवस्था में राज्यपालों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका है, लेकिन जब कभी उनके पास फैसला लेने का महत्वपूर्ण समय आता है, तो हम देखते हैं कि वे उस केन्द्र सरकार के इशारे पर नाच रहे हैं, जिसने उन्हें नियुक्त किया था। शायद ही कभी ऐसा मौका देखने को मिला हो कि किसी राज्यपाल ने तब वैसी स्थिति में कोई विवेकसम्मत फैसला लिया हो।

अब नरेन्द्र मोदी की सरकार भी वही कर रहे हैं, जो किए जाने की परंपरा रही है। वे भी पिछली यूपीए सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को हटाना चाहते हैं और उनकी जगह अपने पसंद के राज्यपाल नियुक्त करना चाहते हैं। 2004 में यूपीए सरकार ने भी यही किया था। सत्ता में आने के बाद उसने अपनी पूर्ववर्ती एनडीए सरकार द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों को हटा दिया था।

पर पहले यह काम जितनी आसानी से किया जाता था, अब उतनी आसानी से यह काम संभव नहीं है। इसका कारण यह है 2010 में सुप्रीम कोर्ट का एक फैसला आया है, जिसमें कहा गया है कि बिना किसी न्यायसंगत कारणों के किसी राज्यपाल को अपने पद से हटाया नहीं जा सकता। उसमें साफ साफ कहा गया कि राज्यपाल को हटाने का यह आधार नहीं हो सकता कि उसे पिछली सरकार ने नियुक्त किया था। यह फैसला भाजपा द्वारा किए गए एक मुकदमे में ही आया था। तब 2004 में भाजपा के कुछ नेताओं को राज्यपाल के पद से हटा दिए जाने के निर्णय को चुनौती दी गई थी और उसी में यह फैसला आया था।

सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले के बाद राज्यपाल को हटाने का काम आसान नहीं रह जाता है। अब बर्खास्त किए गए राज्यपाल सुप्रीम कोर्ट जा सकते हैं और सुप्रीम कोर्ट उनकी बर्खास्तगी के निर्णय को निरस्त भी कर सकती है। ऐसा हुआ, तो यह नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार के लिए भारी फजीहत का कारण बन सकता है।

अब यदि नरेन्द्र मोदी कांग्रेस सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपालों को बदलना चाहते हैं, तो इसके पीछे उनका अपना कोई एजेंडा होगा। वे कांग्रेस की कुछ सरकारों के ऊपर नजर रखना चाहते होंगे और अपनी पार्टी के कुछ लोगों को लाभ पहुंचाना चाहते हैं।

भाजपा में अनेक लोग राज्यपाल बनने की लालसा पाल रहे हैं और कुछ लोगों को भाजपा सक्रिय राजनीति से हटाना चाह रही है। उत्तर प्रदेश के केशरीनाथ त्रिपाठी, केरल के ओ राजगोपाल, महाराष्ट्र के राम नाईक और दिल्ली के भाजपा नेता वी के मल्होत्रा उन लोगों मंे शामिल हैं। कल्याण सिंह को भी राज्यपाल बनाने का प्रस्ताव है, लेकिन वे सक्रिय राजनीति अभी छोड़ना नहीं चाहते।

सरकार के पास एक विकल्प राज्यपालों को तबादला भी है। ज्यादा महत्वपूर्ण राज्यों से हटाकर कुछ राज्यपालों को कम महत्व वाले राज्यों में भेजा जा सकता है। कुछ राज्यपाल तो भ्रष्टाचार के मामले में भी जांच का सामना कर सकते हैं। ऐसे राज्यपालों को हटाना केन्द्र सरकार के लिए कठिन नहीं होगा, लेकिन इतना तो तय है कि किसी को भी हटाने के लिए ठोस आधार तैयार करना सरकार के लिए जरूरी होगा।(संवाद)