यही कारण है कि उनकी रिपोर्ट पार्टी की हार के लिए जिम्मेदार इन दो बिन्दुओं की अनदेखी कर देगी। कांग्रेस के ऊपर सामंती वर्चस्व को लेकर पार्टी के कुछ तबकों में अब बेचैनी देखी जा सकती है। सोनिया परिवार के ऊपर पार्टी की निर्भरता को अब लोग कांग्रेस की हार के एक कारण के रूप में देखने लगे हैं।

पार्टी की हार का एक दूसरा कारण कांग्रेस की नीतियों में हुए बदलाव से संबंध रख सकता है। 1991 में कांग्रेस ने अर्थव्यवस्था का निजीकरण करना शुरु कर दिया था। नीतियांे में खुलापन भी लाए गए थे। इसके कारण देश की आर्थिक विकास दर में वृद्धि हुई थी। इस वृद्धि के कारण एक नये तबके का अस्तित्व हो गया, जो चुनावों में हारजीत को निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाया करता है।

वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह जिस नीतियों की शुरुआत करने वाले नेता के रूप में उभर के सामने आए थे, उन नीतियों से उलटा काम उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद करना शुरू कर दिया था। यह सोनिया गांधी के कारण हो रहा था। लोकप्रियतावादी नीतियों पर हजारों करोड़ रुपये की राशि बहाई गई और उम्मीद की गई कि उसके कारण पार्टी को जीत हासिल होगी। 2009 की जीत को मनरेगा के कारण बताया गया, जबकि मूल वजह कुछ और थी। उस जीत के गलत विश्लेषण के कारण अपने दूसरे कार्यकाल में यूपीए ने लोकप्रियतावादी नीतियों पर पैसा लुटाना जारी रखा, जबकि सरकारी खजाना उसकी इजाजत नहीं दे रहा था। नये युग में वे नीतियां अब पहले वाला चुनावी परिणाम नहीं देती। यह बात कांग्रेस के नेताओं को समझ नहीं आ सकी। कांग्रेस की हार के पीछे का एक बड़ा कारण यही है, लेकिन इसे एंटोनी शायद ही अपनी रिपोर्ट में जगह दे पाएंगे।

लेकिन कहा जा रहा है कि एंटोनी ने कांग्रेसी ब्रांड के सेकुलरिज्म को हार का एक बड़ा कारण स्वीकार किया है। यदि यह सच है, तो यह भी सोनिया और राहुल के ऊपर एक विपरीत टिप्पणी है। यह भारतीय जनता पार्टी की उस लाइन का एक तरह से समर्थन कर देता हे, जिसके तहत वह कांग्रेस पर शुडो सेकुलर होने का आरोप लगाती रही है, जिसके तहत मुसलमानों की तृष्टि की जाती है।

एंटोनी यह कहना चाहते हैं कि कांग्रेस की सेकुलर नीति एक विशेष समुदाय यानी मुसलमानों को खास महत्व देती रही है, जिसके कारण बहुसंख्यक समुदाय में यह संदेश जाता है कि देश की यह सबसे पुरानी पार्टी उनके हितों के खिलाफ काम करती है।

एंटोनी की रिपोर्ट की यह बात ठीक उस समय आई, जब महाराष्ट्र में मराठों को 32 फीसदी और मुसलमानों को 5 फीसदी आरक्षण देने का निर्णय वहां की कांग्रेस नेतृत्ववाली सरकार ने किया। गौरतलब है कि वहां कांग्रेस का एनसीपी के साथ गठबंधन की सरकार है। उस सरकार ने एक बार फिर आरक्षण को चुनावी मुद्दा बनाने की कोशिश है।

कांग्रेस मुसलमानों का वोट पाने के लिए आरक्षण की राजनीति करती रही है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए अधिसूचना जारी होने के कुछ पहले ही उसने मुसलमानों के लिए साढ़े 4 फीसदी आरक्षण की घोषणा कर दी थी। वह घोषणा उन मुसलमानों के लिए की गई थी, जिन्हें पहले से ही ओबीसी के 27 फीसदी कोटे के तहत आरक्षण मिल रहा था। 27 फीसदी का विभाजन कर उसमें से ही साढ़े 4 फीसदी मुसलमानों के नाम पर अल्पसंख्यकों के लिए दिया गया। इससे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा नहीं हुआ। फायदा नहीं होने के बावजूद आश्चर्य की बात है कि कांग्रेस मुस्लिम आरक्षण के द्वारा उनका समर्थन पाने की अभी भी उम्मीद पाल रही है।

सच कहा जाय, तो आज कांग्रेसी अपनी पार्टी के भविष्य को लेकर आशंकित हैं। राहुल गांधी से उनको निराशा ही हाथ लग रही है। उनके नेतृत्व में लड़ा गया सभी चुनाव कांग्रेस हारती जा रही है और कांग्रेस उपाध्यक्ष तो लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता बनने की चुनौती को भी स्वीकार करने से भाग रहे हैं। (संवाद)