एंटोनी का ऐसा कहना काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे खुद एक अल्पसंख्यक समुदाय से हैं। लेकिन हमारी राजनीति में एक चलन ऐसा चल गया है कि जब कोई सेकुलर नेता अल्पसंख्यक शब्द का इस्तेमाल करता है, तो उसका मतलब मुस्लिम होता है, सिख या ईसाई नहीं, जबकि उनकी संख्या मुसलमानों से भी काफी कम है। लगता है कि ए के एंटोनी द्वारा इस्तेमाल किया गया अल्पसंख्यक शब्द का मतलब भी मुस्लिम ही है। यानी वे कहना चाह रहे हैं कि कांग्रेस मुसलमानों के मत पाने के लिए जो राजनीति करती है, उसका खराब असर बहुसंख्यक हिंदुओं और सिख व जैन जैसे अल्पसंख्यकों पर पड़ रहा है।

श्री एंटोनी का वह बयान बिल्कुल सही है। कांग्रेस ही नहीं, बल्कि अन्य स्वयंघोषित सेकुलर पार्टियां जिस तरह की मुस्लिम वोट पाने की राजनीति कर रही है, उससे देश के लोगों में गलत संदेश जा रहा है। किसी भी समुदाय की बेहतरी के लिए कुछ करना गलत नहीं है, लेकिन वैसा करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि दूसरे समुदाय के हितों को नुकसान होता हुआ या कम से कम उनकी भावनाओं को ठेंस लगता हुआ दिखाई नहीं पड़ना चाहिए। पर कांग्रेस के नेता मुस्लिम मतों को पाने की राजनीति करते समय यह भूल जाते हैं कि देश के मतदाता सिर्फ मुस्लिम ही नहीं हैं, बल्कि दूसरे लोग भी वोट डालते हैं और उनके मतों की कीमत भी वही है। लेकिन मुस्लिम मतों की राजनीति यह सोचकर किया जाता है कि जहां कहीं भी मुस्लिम होते हैं, तो वे भारी संख्या में मतदान करते हैं, जबकि अन्य समुदाय के लोग कम संख्या में मतदान केन्द्रों पर जाते हैं। इस तरह की बातों को हवा खुद मुस्लिम नेताओ ंद्वारा दी जाती है और वे प्रायः अपने मतों की ताकत का बखान करते हुए किसी भी राजनैतिक नेता के सामने देखे जा सकते हैं।

भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत का एक कारण कांग्रेस सहित अनेक दलों द्वारा मुस्लिम मतों को पाने के लिए ज्यादा हाइपर हो जाना रहा है। ऐसा करते समय उनकी नजर सिर्फ मुस्लिम मतों पर रहती है और वे यह भूल जाते हैं कि अन्य समुदायों के मतदाताओं पर उसका कैसा असर पड़ता है। हद तो तब हो जाती है कि वे अपने बयानों, भाषणों और बातचीत तक में मुसलमानों को सेकुलर वोट कह डालते हैं। यानी उनकी नजर में मुस्लिम सेकुलर वोट है और गैर मुस्लिम कन्युनल वोट। इस तरह की बयानबाजी से यह साबित होता है कि हमारे राजनेता मुस्लिम वोट पाने के लिए इतने आतुर हो जाते हैं िकवे शब्दों कंे अर्थ का अनर्थ भी कर देते हैं। वे मुस्लिम मो मुस्लिम कहने से डरते हैं, तो उन्हें वे अल्पसंख्यक कहकर काम चला लेते हैं तो कभी सेकुलर कहकर।

ठस तरह की मुस्लिमपरस्त सेकुलर राजनीति का बहुसंख्यक हिंदुओं व कुछ अल्पसंख्यक समुदायों पर उलटा असर पड़ता है और उन्हें लगने लगता है कि देश ये राजनेता मुसलमानों को पहले दर्जे का व उन्हें दूसरे दर्जे का नागरिक समझते हैं। उनका इन नेताओं और इनकी पार्टियों से मोह भंग होने लगता है। उससे भी बड़ी बात यह है कि जब वे देखते हैं कि भ्रष्टाचार मंे डूबे नेता अपनी राजनीति बचाने के लिए मुस्लिम राजनीति की शरण में जा रहे हैं, तो उनका पारा और बढ़ता है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी कांग्रेस विरोधी पार्टी है। लेकिन वे लंबे समय तक केन्द्र की कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार का विरोध करती रही। मजे की बात तो यह है कि वे कांग्रेस की अधिकांश नीतियों का विरोध करती रहीं, पर सीबीआई जांच से बचने के लिए केन्द्र सरकार का समर्थन करती रही। समर्थन के पीछे कारण भ्रष्टाचार के मामलों में सीबीआई जांच से बचना था, लेकिन वे सेकुलरिज्म का गाना गाते हुए और सांप्रदायिक शक्तियों यानी भाजपा को सत्ता से बाहर रखने का दंभ भरते हुए कांग्रेस का समर्थन करती रही।

अब लोगों की जागरूकता बढ़ी है। उनके राजनैतिककरण का स्तर भी बढ़ा है। इसलिए अब उन्हें बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता। शायद कुछ समय के लिए बनाया भी जा सकता है, पर लंबे समय तक के लिए नहीं बनाया जा सकता, पर सेकुलरिज्म की मुस्लिम परस्त राजनीति बहुत लंबे समय से कंाग्रेस व अन्य अनेक पार्टियां खेलती रही हैं। अब चूुकि भारतीय जनता पार्टी उस तरह की राजनीति नहीं करती, इसलिए उसे इसका सहज फायदा मिल गया। हालांकि एक समय था जब भाजपा मुसलमानों का भय दिखाकर हिंदू वोट लेने की कोशिश किया करती थी, लेकिन उसमें उसे बहुत कम सफलता मिली। अब उसे उस तरह का भय दिखाने या मुसलमानों के बारे में बोलने की जरूरत ही नहीं, क्योंकि उसकी विरोधी पार्टियों ने मुस्लिम वोट पाने की राजनीति को उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि भाजपा को बिना कुछ बोले लोगों का वोट मिलने लगा है।

इसलिए ए के एंटोनी का कांग्रेस की पराजय के बारे मंे किया गया एक आकलन बिल्कुल सही है। सच कहा जाय, तो यह आकलन सिर्फ कांग्रेस के लिए ही लागू नहीं होता, बल्कि मुस्लिम मतों की राजनीति करने वाले अन्य उन दलों पर भी लागू होता है, जिनकी चूलें पिछले लोकसभा चुनाव में हिल चुकी हैं। ममता बनर्जी इस बार चुनाव में तो जीत गई, क्योंकि उनके प्रदेश में भाजपा का संगठन लगभग नदारद है, लेकिन इस बार भाजपा को 17 फीसदी मत मिले हैं। यदि ममता ने अपनी मुस्लिम परस्त सेकुलरिज्म की राजनीति नहीं छोड़ी तो आने वाले चुनाव में उनकी पार्टी की भी वही स्थिति हो सकती है, जो बिहार में लालू और नीतीश व उत्तर प्रदेश में मुलायम और माया की पार्टी की हो गई है। (संवाद)