सच कहा जाय, तो यह सर्वेक्षण कुछ बातें बताता है, जबकि अनेक महत्वपूर्ण बातों को बताता ही नहीं है। नई सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर जितनी साफगोई इसमें दिखाई जानी चाहिए थी, उतनी नहीं दिखाई गई है। साफ है कि केन्द्र सरकार अपनी आर्थिक नीतियों को लेकर अभी बहुत स्वष्ट नहीं है और यदि है भी तो वह खुलकर सामने नहीं आना चाहती है। यही कारण है कि यह आर्थिक सर्वेक्षण आंकड़ों के एकत्रीकरण से ज्यादा कुछ बन नहीं पाया है।
पिछले वित्तीय साल में विकास दर 5 फीसदी से भी कम रही और सर्वे की उम्मीद है कि अगले साल यह 5 दशमलव 4 फीसदी से 5 दशमलव 9 फीसदी तक रह सकती है। पर सवाल उठता है कि इस तरह की आशावादिता क्यों? पिछले वित्तीय वर्ष में उद्योग विकास दर बहुत ही कम रही। उसके पहले वाले साल में यह 1 फीसदी थी और पिछले में तो आधा फीसदी से भी कम थी। हां, कृषि की विकास दर अच्छी रही और यह 4 दशमलव 7 फीसदी थी। सर्विस सेक्टर की विकास दर में भी कमी आई थी। अब मानसून के बारे में जो भविष्यवाणी की जा रही है, उसे देखते हुए कृषि के विकास की संभावना तो नहीं ही है, फिर विकास की और ऊंची दर पाना कहीं हमारे नीति निर्माताओं का ख्याली पुलाव तो नहीं है? यह सच है कि पिछले साल हुई बम्पर खेती के कारण खराब मानसून के बावजूद खाद्यान्न संकट की समस्या नहीं है, क्योंकि हमारे गोदामों में जितने अनाज होने चाहिए थे, उससे कहीं ज्यादा अनाज हमारे पास है। उसके कारण सरकार को कीमतों पर नियंत्रण बनाए रखने में सुविधा होगी, लेकिन इसके कारण विकास दर कैसे बढ़ जाएगी, यह समझ पाना कठिन है।
हमारे देश में आज सबसे ज्यादा खराब हालत उद्योगों की है। यह पिछले तीन चार साल से कम विकास दर की शिकार हो गई है। जब दुनिया में मंदी चल रही थी, तो सरकार ने उद्योगों को प्रोत्साहित करने के लिए बहुत छूट दिए थे। अनेक छूट अभी भी नहीं हटाए गए हैं, उसके बावजूद इस मोर्चे पर निराशा हाथ लग रही है। इसके बावजूद यदि सरकार बेहतर विकास को लेकर आशान्वित है, तो शायद इसका एक कारण यह हो सकता है कि उद्योगों के लिए वह कोई विशेष योजनाएं लेकर आ रही हैं
आर्थिक सर्वे से पता चलता है कि अनाज के विपुल भंडार हमारे पास मौजूद हैं। इससे यह भी पता चलता है कि देश का भुगतान संतुलन भी पहले से बेहतर है यानी निर्यात और आयात के बीच की खाई पहले से कम चैड़ी है। ये दोनों तथ्य बताते हैं कि कम औद्योगिक विकास दर होने के बावजूद देश की आर्थिक दशा उतनी खराब नहीं है, जितनी खराब होने की बात मोदी सरकार ने शपथ ग्रहण के बाद किया था।
राजकोषीय घाटे की दशा से सरकारी खजाने की दशा का भी पता लगता है। आर्थिक सर्वेक्षण में इसके बारे में अद्यतन जानकारी नहीं दी जाती। बजट के साथ ही यह सामने आता है कि राजकोष के घाटे की क्या दशा है। लेकिन अरुण जेटली ने सर्वे पेश करने के बाद बातचीत में वैसे ही कह डाला कि राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का साढ़े 4 फीसदी है। शायद उनकी जुबान फिसल गई थी और उन्होंने तुरत यह भी कह डाला कि इसके बारे में पूरी जानकारी बजट पेपर के साथ ही मिलेगी। गौरतलब है कि अंतरिम बजट में पिछले साल के राजकोष के घाटे के चार दशमलव एक फीसदी रहने का अनुमान किया गया था। उस अनुमान पर किसी को विश्वास नहीं हुआ था, क्योंकि राजकोष की हालत वाकई बहुत खराब है। अधिकांश अर्थशास्त्रियों और आर्थिक विशेषज्ञों का मानना था कि राजकोष का घाटा 5 फीसदी से ऊपर होगा और यह 6 फीसदी तक भी जा सकता है। लेकिन यदि यह आंकड़ा साढ़े 4 फीसदी का ही है, तब भी यह मानना पड़ेगा कि खजाना उतना खाली नहीं है, जितना खाली होने का डर यह सरकार बता रही थी। इसकी तुलना कीजिए 1991 की स्थिति से जब राजकोषीय घाटा 6 फीसदी तक पहुंचा हुआ था और विदेशी मुद्रा की हालत इतनी पतली थी कि सोना तक को गिरवी रखना पड़ा था।
भुगतान संतुलन ज्यादा बिगड़ा नहीं होने के साथ साथ विदेशी मुद्रा भंडार में भी पिछले वित्तीय वर्ष में वृद्धि देखी गई है और समीक्षा में कहा गया है कि विदेशी कर्ज की स्थिति भी नाजुक नहीं है और उसकी प्रबंधन करने में किसी तरह की परेशानी नहीं हो रही है।
जब इन क्षेत्रों में स्थिति ठीक है, तो फिर पिछली सरकार के कार्यकाल में खराबी कहां थी? इस सवाल का जवाब जानने के लिए समीक्षा को पढ़ने की जरूरत नहीं, क्योंकि सबको पता है कि असली समस्या कीमतों के मोर्चे पर थी और वह भी आवश्यक वस्तुओं की कीमतों के मोर्चे पर। यह समस्या बेहतर खाद्यान्न उत्पादन के बावजूद थी। जाहिर है, हमारी वितरण व्यवस्था अथवा बाजार में कुछ ऐसी भयंकर खामियां आ गई हैं, जिनसे कीमत तय करने वाला मांग और पूर्ति का सिद्धांत गलत साबित हो जाता है।
खाद सब्सिडी पर सरकार ने चिंता जताई है और उसे तर्कसंगत बनाने की बात की गई है। तो क्या खाद पर से सब्सिडी हटाने की मंशा है? गरीबो को सीधे आय करवाने की भी बात समीक्षा में है, तो क्या सरकार आधार के आश्रय में जाना चाहती है? मनरेगा को श्रम की आपूर्ति में बाधक बताया गया है, तो क्या सरकार इसे समाप्त करने की ओर बढ़ रही है? इंधन की कीमत को बाजार के अनुरूप् लानेक ी बात की गई है, तो क्या सरकार बिजली, तेल और डीजल से सब्सिडी पूरी तरह हटाने की दिशा में बढ़ रही है? महंगाई को बहुत बड़ी चुनौती बताई गई है, तो फिर इंधन को सब्सिडीमुक्त कर सरकार महंगाई को कैसे रोक पाएगी? किसानों को भी सीधे आय करवाने की बात की गई है? तो क्या सरकार उनको कैश देने के लिए आधार का सहारा लेगी। (संवाद)
भारत
बजट पूर्व आर्थिक समीक्षा
कैसे तेज होगी विकास की रफ्तार
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-07-10 12:06
बजट के पहले पेश किया गया आर्थिक सर्वेक्षण पिछले कुछ सालों की नीची विकास दर को रेखांकित करता है और चालू वित्तीय वर्ष के लिए एक बेहतर विकास दर की उम्मीद जताता है। पर वह यह नहीं बताता कि यह कैसे संभव हो पाएगा।