पिछले सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अच्छी शुरुआत की थी। उन्होंने संसद में दिए गए अपने पहले भाषण में विपक्ष से सहयोग की मांग की थी और विपक्ष ने भी कोई आक्रामकता नहीं दिखाई थी। इससे ऐसा लगने लगा था कि इस बार संसद में ठीकठाक ढंग से काम चला करेगा।

लेकिन चालू सत्र की शुरुआत ही खराब हुई। प्रश्न काल में विपक्षी सांसदों ने हंगामा शुरू कर दिया और वे महंगाई के मुद्दे पर स्थगन प्रस्ताव को स्वीकार किए जाने की मांग कर रहे थे। इस सप्ताह भी यही प्रवृति जारी रही। यह भी देखा गया कि सदस्य बार बार स्पीकर की कुर्सी की ओर नारे लगाते हुए दौड़ रहे थे। सदन को बार बार स्थगित किया गया। इससे पुराने दिनों की बातें याद आ गईं।

लोकसभा में भारी बहुमत से यह निश्चित नहीं हो जाता कि सदन में काम सहज तरीके से चलता रहेगा। 1984 में कांग्रेस को लोकसभा में 405 सीटें मिली थीं। उस समय लोकसभा में विपक्ष सबसे ज्यादा कमजोर था। पर तब उस समय के कमजोर विपक्ष ने भी प्रचंड बहुमत वाली सरकार के दांत खट्टे कर दिए थे। इसलिए कमजोर विपक्ष के पास भी मजबूत मुद्दे हो तो वह प्रभावी तरीके से सरकार को कटघरे में खड़ा कर सकता है और सरकार को बार बार शर्मिंदगी का सामना करना पड़ सकता है। इसका मतलब यह नहीं है कि नारा लगाने, हंगामा कराने, वाक आउट करने और सदन को स्थगित करवाने से ही सरकार को कठघरे में किया जा सकता है।

जहां तक राज्य सभा की बात है, तो वहां विपक्ष बहुमत में है। राजग वहां अल्पमत में है। वहां सरकार विपक्ष के सहयोग के बिना विधेयक पारित नहीं करवा पाएगी। इसमें कोई शक नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आल इंडिया अन्ना डीएमके और बीजू जनता दल के नेताओं से बेहतर संबंध बनाने की कोशिश की है ताकि राज्य सभा में विधेयकों को पास करवाने में उनकी सहायता ली जा सके। यदि कोई विधेयक लोकसभा मे पारित होने के बाद राज्य सभा में पराजित हो जाता है, तो उसे कानून बनाने के लिए संसद का संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान है। यदि संयुक्त सत्र में वह विधेयक पारित हो जाता है, तो उसे संसद से पारित माना जाता है और राष्ट्रपति के दस्तखत के लिए उसे आगे भेज दिया जाता है। इस तरह का प्रावधान तो है, लेकिन इसका इस्तेमाल अब तक सिर्फ एक बार हुआ है। उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी और पोटा विधेयक राज्यसभा में पराजित हो गया था। फिर संसद का संयुक्त सत्र बुलाकर उसे पारित कराया गया।

अब तक तो बातें साफ हो गई हैं। पहली बात तो यह है कि सरकार संसद को सुचारू रूप से चलाने में अभी भी सक्षम नहीं है, जबकि विपक्ष बुरी तरह विभाजित है। लोकसभा में विपक्ष का कोई नेता भी नहीं है। भाजपा नहीं चाहती है कि विपक्ष का नेता किसी को बनाया जाय, क्योंकि उसके लिए जरूरी 55 लोकसभा सदस्य किसी भी विपक्षी पार्टी से जीतकर नहीं आए हैं।

कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी है, लेकिन इसके पास आवश्यक 55 सीटें नहीं है। चुनाव में भारी हार के बावजूद वह आस लगाए हुए है कि उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा मिल जाएगा। इसके लिए वह कोशिश भी कर रही है, लेनिक लगता है कि उसकी यह कोशिश बेकार ही जाएगी।

दूसरी साफ बात यह है कि विपक्ष ने सरकार के खिलाफ आपस में कोई मेलजोल नहीं बढ़ाया है। विपक्ष के नेता के मसले पर कांग्रेस यूपीए से बाहर के दलों का समर्थन नहीं प्राप्त कर पाई है। सभी विपक्षी पार्टियां अपना खेल खुद और अकेले खेल रही हैं। यदि सभी विपक्ष एक हो जाय, तो स्थिति बदल जाएगी। (संवाद)