1984 में हमने इसे देखा था। उस समय इन्दिरा जी की हत्या की पृष्ठभूमि में लोकसभा के चुनाव हो रहे थे। हत्या के कारण देश में कांग्रेस और राजीव गांधी के पक्ष में एक सहानुभूति लहर चल रही थी। उस लहर में कांग्रेस को 415 सीटें मिली थीं और कुल पड़े मतों का 48 प्रतिशत उसे ही मिला था। उस समय जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र सभी भावनाओं से ऊपर उठकर लोगों ने कांग्रेस के पक्ष में मतदान किया था।

पिछले लोकसभा चुनाव में भी कुछ वैसा ही हुआ। इसके कारण ही लालू, मुलायम, नीतीश और मायावती की जातिवादी राजनीति काम नहीं आई। उनके समर्थकों ने अपने आपको मोदी लहर के सुपूर्द कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि नरेन्द्र मोदी ही देश को बदहाली से निकालकर खुशहाली की ओर ले जा सकते हैं।

हालांकि मोदी की यह लहर पूरे देश में नहीं थी। पश्चिम बंगाल, ओडिशा और तमिलनाडु में क्रमशः ममता बनर्जी, नवीन पटनायक और जयललिता को सफलता मिल और मोदी लहर वहां भाजपा उम्मीदवारों के काम नहीं आ सकी। वैसे पश्चिम बंगाल में भाजपा का वोट प्रतिशत 4 से बढ़कर 17 हो गया। ओडिशा और तमिलनाडु में भी भाजपा के वोट प्रतिशत कुछ बढ़े, लेकिन उसके कारण सीटों के मामले में उसे कोई उल्लेखनीय लाभ नहीं मिल सका।

महाराष्ट्र में मोदी लहर के कारण भाजपा की सफलता अपने सहयोगी शिवसेना से ज्यादा रही। वहां भाजपा को 43 सीटें मिलीं, जबकि उसके सहयोगी शिवसेना को मात्र 18 सीटें ही मिल पाईं। 2009 के लोकसभा चुनाव में वहां भाजपा को 9 सीटें मिली थीं, जबकि शिवसेना को 11 सीटें मिली थीं।

लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन के कारण भारतीय जनता पार्टी इस बार कुछ ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना चाहेंगी और मोदी लहर का हवाला देकर शिवसेना के साथ कड़ी सौदेबाजी करना चाहेगी। पर शिवसेना गठबंधन में महाराष्ट्र के स्तर पर भाजपा को नेतृत्व की भूमिका में हरगिज नहीं स्वीकार करेगी। इसके कारण दोनों का गठबंधन संकट में भी पड़ सकता है।

राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शिवसेना भारतीय जनता पार्टी की सबसे पुरानी सहयोगी पार्टी है। इसका उदय 1960 के दशक में हुआ था। इसने सबसे पहले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ अभियान चलाया था। उस समय मुंबई में उनका दबदबा कुछ ज्यादा था। बाद में शिवसेना ने अपनी छवि मुस्लिम विरोधी पार्टी के रूप में भी बना डाली। उसके और बाद वह उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को निशाना बनाकर अपनी राजनीति करने लगी।

1960 के दशक में जब शिवसेना दक्षिण भारत के लोगों के खिलाफ अभियान चलाया करती थी, उस समय वहां भारतीय जनता पार्टी थी ही नहीं। मुस्लिम मुद्दे पर दोनों में एकता हुई थी और वह एकता आज भी बरकरार है। भारतीय जनता पार्टी चूंकि हिंदी प्रदेशों की पार्टी है इसलिए वह शिवसेना द्वारा उत्तर भारतीयों के खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान का हिस्सा नहीं बन सकती। अब नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने मुसलमानों के प्रति नरम रुख अपनाना शुरू किया है, इसलिए यहां भी दोनों अलग अलग दिखाई पड़ रही है।

यही कारण है कि भाजपा और शिवसेना के बीच अब चुनावी गठजोड़ तक ही रिश्ता सीमित होकर रह गया लगता है। इस रिश्ते में जोरदार सौदेबाजी होती है, क्योंकि तब नजर सिर्फ सत्ता पर बनी रहती है। अब सवाल उठता है कि दोनों के बीच क्या दोस्ती बनी रहेगी? इसका पता तो विधानसभा चुनाव के पहले ही लगेगा। वैसे हम देख सकते हैं कि शिवसेना अब पहले वाली शिवसेना नहीं रही। इसका विभाजन हो चुका है और एक धड़े के नेता राज ठाकरे हैं, जिन्होंने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना नाम का एक अलग संगठन बना रखा है। (संवाद)