पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी 31 सीटें पाकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। उसके सहयोगी अकाली दल को भी एक सीट मिली थी। इस तरह उसके पास कुल 32 सीटें थी, जो बहुमत के आंकड़े से 4 कम थी। इस कमी के कारण 28 विधायकों वाली दूसरी सबसे बड़ी पार्टी आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस के 8 विधायकों के समर्थन से सरकार बना डाली थी, जिसने बाद में इस्तीफा दे दिया।

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने अपने तीन विधायकों को लोकसभा का चुनाव लड़ाया था और तीनों चुनाव जीत गए। उसके कारण उन्हें विधानसभा से इस्तीफा देना पड़ा। उनके इस्तीफे के कारण विधानसभा में विधायकों की संख्या 67 हो गई है और अब बहुमत के लिए 34 विधायकों का समर्थन चाहिए। इस्तीफे के कारण भाजपा विधायकों की संख्या 28 हो गई है। सहयोगी अकाली दल के एक सदस्य के समर्थन से उसकी ताकत 29 की है। आम आदमी पार्टी ने अपने एक विधायक को पार्टी से निकाल दिया है। उस विधायक का समर्थन भी भाजपा को मिल रहा है। उस समर्थन से भाजपा के पास 30 का आंकड़ा है। एक निर्दलीय विधायक भी उसके साथ हैं। इस तरह भाजपा के पास 31 विधायकों के समर्थन में किसी को किसी भी प्रकार का संदेह नहीं है।

शेष 3 विधायक जुटाने के लिए भाजपा ने आम आदमी पार्टी के विधायकों के बीच संभावना तलाशना शुरू किया, लेकिन समस्या यह है कि उसमें विभाजन के लिए दो तिहाई विधायक चाहिए। यानी यदि कुल 18 विधायक केजरीवाल को छोड़ना चाहें, तभी उसमें विभाजन संभव है। भाजपा के एक वरिष्ठ विधायक ने बताया कि आम आदमी पार्टी के 11 विधायक तो केजरीवाल को छोड़कर भाजपा की ओर आने के लिए तैयार है, लेकिन दल बदल कानून के तहत उनकी सदस्यता समाप्त होने के खतरे के कारण वे भाजपा का साथ नहीं दे पा रहे हैं। विधानसभा अध्यक्ष चूंकि आम आदमी पार्टी का ही हैं, इसलिए दलबदल की किसी भी सुगबुगाहट आम आदमी पार्टी के किसी भी बागी विधायक के लिए भारी पड़ सकती है।

दल बदल विरोधी कानून के तहत विभाजन के लिए पहले एक तिहाई विधायकों की ही जरूरत पड़ती थी, लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में विभाजन का काम और भी कठिन कर दिया गया और विभाजन के लिए सदस्यों की न्यूनतम सदस्य संख्या बढ़ाकर दो तिहाई कर दी गई।

आम आदमी पार्टी के विभाजन को असंभव मानकर भाजपा का ध्यान कांग्रेस की ओर मुखातिब हुआ। कांग्रेस के पास 8 विधायक हैं और वे भी चुनाव नहीं चाहते, क्यांेकि उन्हें डर है कि चुनाव की स्थिति में वे अपनी सीटें गंवा सकते हैं, क्योंकि लोकसभा चुनाव में भी मुख्य मुकाबला यहां भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच ही रह गया था।

कांग्रेस में विभाजन के लिए 6 विधायकों की जरूरत है। उसके 8 विधायकों में 4 मुस्लिम, दो सिख और एक अनुसूचित जाति के हैं। सूत्रों के अनुसार उनमें से 6 विधायक पार्टी मूल पार्टी से अलग होकर एक नई पार्टी बनाने के लिए तैयार हैं। विभाजन के बाद वे भाजपा के साथ सरकार में शामिल हो सकते हैं। उनके समर्थन से भाजपा के समर्थक विधायकों की संख्या 37 हो जाएगी, जो पूर्ण बहुमत से ज्यादा है।

सूत्रों के अनुसार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जोड़ तोड़ की राजनीति नहीं करना चाहते और वे दिल्ली में फिर से चुनाव करवाने के पक्षधर हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में दिल्ली की कुल 70 विधानसभा सीटों में 60 पर भाजपा को ज्यादा वोट मिले थे। इसके कारण विधानसभा चुनाव होने की स्थिति में भाजपा की जीत की पूरी संभावना है। पर भाजपा विधायक चुनाव नहीं चाहते। यही कारण है कि भाजपा का नेतृत्व दिल्ली के अपने विधायकांे के दबाव में कांग्रेस के विभाजित विधायकों के समर्थन से भी सरकार बनाने के विकल्प पर तैयार हो गया है। कुछ आम आदमी पार्टी के इच्छुक विधायकों से इस्तीफा दिलवाने के विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है। फिलहाल सरकार गठन को लेकर कम से कम भाजपा विधायक बहुत ही आशान्वित हैं। (संवाद)