लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद इन दोनों मुख्यमंत्रियों को हटाने के लिए तेज अभियान चलाए जा रहे थे। लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व युद्ध के बीच में अपने घोड़े बदलने के लिए तैयार नहीं है। विद्रोही कह रहे थे कि चैहान का नेतृत्व बहुत ही नकारा है और उसमें कांग्रेस चुनावों में बेहतर करने की सोच भी नहीं सकती है। नारायण राणे, राधा कृष्ण विखे पाटिल और अशोक चैहान के नेतृत्व में उनके समर्थक पृथ्वीराज चैहान को पद से हटाने के लिए सक्रिय थे।
दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस की सहयोगी एनसीपी भी पृथ्वीराज चैहान से छुटकारा पाना चाह रही थी। सबको उम्मीद थी कि दोनों पार्टी जमीनी स्तर पर मिलकर काम करंेगे, पर ऐसा हो नहीे पा रहा है। एनसीपी के नेता शरद पवार भी पृथ्वीराज चैहान के नेतृत्व मंे विधानसभा का चुनाव लड़ना नहीं चाहते। वे पूर्व गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को मुख्यमंत्री के रूप में चुनाव के समय देखना चाहते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में एनसीपी भी कांग्रेस के साथ हारी है, लेकिन यदि दोनों के चुनावी नतीजों की तुलना की जाय, तो साफ दिखाई पड़ता है कि एनसीपी का प्रदर्शन कांग्रेस से बेहतर रहा है। कांग्रेस को सिर्फ दो सीटंे मिली हैं और उसे कुल पड़े मत का 16 प्रतिशत मिला है, जबकि एनसीपी को 4 सीटों पर विजय हासिल हुई है और उसे 18 फीसदी मत मिले हैं। इसलिए एनसीपी चाहती है कि विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को कांग्रेस के बराबर सीटें मिले। लेकिन दोनों पार्टियों के बीच सीटों को लेकर तालमेल हमेशा पेचीदा होता है। अंत अंत तक बातचीत चलती रहती है। शरद पवार की कांग्रेस से सीटों के बंटवारे को लेकर कई दौर की बातचीत हो चुकी है। कांग्रेस ने तो शरद पवार से विधानसभा चुनाव में गठबंधन का नेतृत्व करने का आॅफर भी दे डाला, जिसे उन्होंने ठुकरा दिया।
कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन पिछले 15 साल से वहां की सत्ता में है। वह चैथी बार सरकार बनाने की कोशिश कर रही है। लोगों का वहां मूड बदलाव का है। इसलिए दोनों पार्टियों को पता है कि चैथी बार सत्ता में आना कठिन है। मराठा और मुसलमानों को आरक्षण देने का फैसला सत्तारूढ़ गठबंधन पर भारी पड़ सकता है। सूखा पड़ा हुआ है। किसानों द्वारा आत्महत्या करने का क्रम जारी है। सहकारी क्षेत्र ढंग से काम नहीं कर रहा है।
दोनों पार्टी 1999 में सत्ता में आई थी। उसी साल शरद पवार ने कांग्रेस को छोड़कर एनसीपी का गठन कर लिया था। कांग्रेस और एनसीपी वह चुनाव एक दूसरे के खिलाफ भी लड़ी थी। चुनाव में किसी पार्टी या मोर्चे को बहुमत नहीं मिला, तो चुनाव के पहले एक दूसरे के खिलाफ लड़ने वाली एनसीपी और कांग्रेस ने आपस में मिलकर गठबंधन किया और उसकी सरकार बना ली। उसके बाद के दो विधानसभा चुनाव दोनो मिलकर लड़े और मिलकर जीतते रहे। इस बार भी दोनों मिल कर ही लड़ेगे, हालांकि दोनों के बीच काफी खींचतान हो रही है। यदि दोनों को अलग होना ही होगा, तो चुनाव के बाद वे अलग होंगी। शरद पवार धीरे धीरे नरेन्द्र मोदी की ओर बढ़ रहे हैं। ट्राई कानून के मसले पर उन्होंने संसद में कांग्रेस का साथ नहीं दिया।
दूसरी तरफ शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी के बीच भी सबकुछ सामान्य नहीं चल रहा है। दोनों के बीच मतभेद बढ़ते ही जा रहे हैं। शिवसेना ने उद्धव ठाकरे को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया है। पिछले लोकसभा चुनाव में जबर्दस्त जीत हासिल कर भाजपा का हौसला बुलंद है। वह शिवसेना से बराबर बराबर सीटों का समझौता चाहती है। लेकिन उसकी समस्या यह है कि उसके पास कोई करिश्माई नेता नहीं है। गोपीनाथ मुंडे की मौत ने इसे महाराष्ट्र में एक बड़े नेता से वंचित कर दिया है। (संवाद)
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कांग्रेस की महाराष्ट्र में स्थिति दयनीय
भाजपा-शिवसेना गठबंधन के सामने भी मुश्किलें
कल्याणी शंकर - 2014-07-18 11:28
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चैहान को अपने पद पर बनाए रखकर कांग्रेस ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वह यथास्थितिवाद की रक्षा करने वाली पार्टी है। कुछ दिन पहले ही हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपींदर सिंह हुड्डा को जीवनदान मिला, जब यह घोषणा की गई कि उन्हें उनके पद से नहीं हटाया जाएगा। दोनों राज्यों मंे आगामी अक्टूबर महीने मंे चुनाव होने वाले हैं। यह कोई नहीं कह सकता कि चुनाव के ठीक पहले मुख्यमंत्री को बदल देने से समस्या का समाधान निकल आता है, लेकिन पार्टी नेतृत्व को तो यह देखना ही चाहिए कि बगावत की आवाज कितनी तेज है। राहत की बात सिर्फ इतनी है कि अनिश्चय छंट चुका है। कांग्रेस के विद्रोही और एनसीपी से यही उम्मीद की जा सकती है कि अनिश्चय समाप्त हो जाने के बाद वे पृथ्वीराज चैहान के साथ मिलकर काम करेंगे। लेकिन क्या वे वाकई करेंगे?