नेपाल भारत के खिलाफ कुछ गमगीन रहा करता था, तो इसके कुछ वाजिब कारण भी रहे हैं। 1950 में की गई भारत और नेपाल की संधि ही दोनों देशों के बीच के संबंधों का एक मात्र तनाव बिंदु नहीं रही है, भारत ने नेपाल की राजनैतिक ताकतों को नेपाल कांग्रेस से लेकर माओवादियों तक विरोध किया है। ये ताकतें नेपाल में राजशाही को समाप्त करने के लिए संघर्ष कर रही थी, लेकिन भारत उनके खिलाफ राजशाही का साथ देता रहा। नेपाली राजशाही के साथ भारत की सहानुभूति कोई छिपी हुई बात नहीं थी, बल्कि यह जगजाहिर थी। इसका कारण नेपाल की जमीनी हकीकत का भारतीय नीति निर्माताआंे द्वारा किया गया गलत आकलन था। भारत को डर लग रहा था कि यदि वहां राजशाही समाप्त हुई तो वह देश पूरी तरह से माओवादियों के कब्जे में आ जाएगा, लेकिन वह आशंका गलत साबित हुई।

पिछले साल नवंबर 2013 में हुए संविधान सभा के चुनावों के नतीजों में नेपाली कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। उसे 196 सीटें मिली हैं, जबकि दूसरे स्थान पर आने वाली एकीकृति माक्र्सवादी लेनिनवादी नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी को 175 सीटें मिलीं। नेपाल के माओवादियों को मात्र 80 सीटों पर ही जीत हासिल हो सकी। माओवादी न सिर्फ आपस में दो धड़ों में विभाजित थे, बल्कि वे एक दूसरे के खिलाफ लड़ भी रहे थे।

जब नेपाल मे राजशाही के खिलाफ आंदोलन अपने चरम पर था, तो उस समय भारत के काठमांडु स्थित राजदूत लगातार शाही सेना के संपर्क में थे। यानी भारत ने राजा के प्रति अपने समर्थन का डंका खुद ही पीट रखा था। इसके कारण नेपाल की जनता भारत विरोधी हो गई। चीन ने इसका फायदा उठाया और नेपाल में अपने प्र्रभाव को बढ़ा लिया। 2012 तक चीन और नेपाल का व्यापार 61 फीसदी बढ़ गया। हालांकि भारत का व्यापार उस साल भी चीन की अपेक्षा ज्यादा था, पर सचाई यह भी है कि चीन के साथ नेपाल का व्यापार तेजी से बढ़ रहा था।

म्यान्मार के साथ भी यही हुआ। मिलिटरी जंता की सरकार को भारत अछूत मानती रही और चीन उसके साथ अपने संबंधों को बढ़ाता रहा।

अपने दो दिनों की यात्रा के दौरान नरेन्द्र मोदी ने नेपाल से अनेक वायदे किए और चोट खाए दिल पर मरहम लगाने की भरपूर कोशिश की। उन्होंने भारत नेपाल की 1950 की संधि को ताजातरीन बनाने का वायदा किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने नेपाल को एक अरब डालर के क्रेडिट देने की भी घोषणा की ताकि वहां इन्फ्रास्ट्रक्चर और पावर सेक्टर का विकास हो सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने नेपाल में जाकर साफ साफ संदेश दिया कि भारत न तो नेपाल के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करना चाहता है और न ही वह नेपाल को डिक्टेट करना चाहता है। उन्होंने कहा कि नेपाल अपने इच्छा अनुसार अपने आपको ढालने के लिए आजाद है और भारत उसकी इस आजादी का सम्मान करता है। इस तरह का साफ बयान बहुत जरूरी था, क्योंकि नेपाल के लोगों के मन में भारत के खिलाफ संदेह पैदा हो गए हैं। उन्हें भारत की नीयत पर शक है। मनमोहन सरकार ने उनके शक को गहरा ही बनाया है।

प्रधानमंत्री ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान नेपाल का विश्वास कुछ हद तक जीतने में सफलता पाई है, लेकिन अभी और भी बहुत कुछ भारत की ओर से किए जाने की जरूरत है। (संवाद)