मुख्यमंत्री के उम्मीदवार पद का विवाद सिर्फ भाजपा तक ही सीमित नहीं है, बल्कि बिहार की उसकी दो सहयोगी पार्टियों के नेता भी उस विवाद में कूद पड़े हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोकजनशक्ति पार्टी और उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोकतांत्रिक समता पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया था। अब उनके नेता भी गठबंधन सरकार के मुख्यमंत्री पद पर दावा करने लगे हैं। उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी को मात्र तीन सीटें मिली थीं और तीनों पर उसके उम्मीदवार जीत भी गए थे। अब श्री कुशवाहा का कहना है कि मुख्यमंत्री पद के सबसे बेहतर उम्मीदवार वे ही हैं, क्योंकि वे ओबीसी समुदाय से आते हैं और उनकी छवि भी साफ सुथरी रही हैं राबड़ी सरकार के कार्यकाल के अंतिम वर्षों में वे बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता भी थे। वे इस समय केन्द्र में मंत्री हैं और बिहार की जातिवादी राजनीति में भी वे फिट बैठते हैं।
उपेन्द्र कुशवाहा के दावे का लोकजनशक्ति पार्टी के एक स्थानीय नेता ने विरोध कर दिया और कहा कि इसका फैसला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तीनों पार्टियां मिलकर ही करेंगी। लोजपा उपेन्द्र कुशवाहा की पार्टी से बिहार में इस मायने में बड़ी है कि उसके पास लोकसभा में 6 सांसद हैं, जबकि कुशवाहा की पार्टी के सिर्फ 3 सांसद ही हैं। रामविलास पासवान एक राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं। इसलिए उनकी पार्टी के लोगों को लगता होगा कि उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करके ही अगला चुनाव क्यों न लड़ा जाय।
भारतीय जनता पार्टी के अंदर सुशील मोदी एक सहज उम्मीदवार बने हुए हैं, क्योकि नीतीश सरकार में वे उपमुख्यमंत्री थे और आज प्रदेश में भाजपा के सबसे बड़े नेता वे ही माने जाते हैं। प्रदेश अध्यक्ष मंगल पांडेय उनके समर्थन के कारण ही प्रदेश अध्यक्ष बने हैं। उपमुख्यमंत्री के रूप में उनकी हैसियत को एक समय भारी चुनौती मिल रही थी। भाजपा के विधायकों के बीच उनके नेतृत्व को लेकर मतदान की भी नौबत आ गई थी। मतदान हुआ था और उसमें सुशील मोदी की जीत हुई थी। उस जीत के बाद उनके विरोधी शांत हो गए थे और वे प्रदेश भाजपा के लगभग निर्विवाद नेता बन गए थे। आज भी ताकत और हैसियत में भाजपा के अन्य नेताओं पर भारी पड़ रहे हैं।
सुशील मोदी विधानसभा के सदस्य नहीं हैं। वे विधान परिषद के सदस्य हैं और उसमें वे विपक्ष के नेता हैं। विधानसभा में विपक्ष के नेता का जिम्मा नन्दकिशोर यादव संभाल रहे हैं। जाहिर है, वे भी मुख्यमंत्री के प्रबल दावेदारों में से एक हैं। सुशील मोदी और उनके बीच अतीत में संबंध बहुत अच्छे रहे हैं, लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर दोनों के बीच संदेह का माहौल भी बन गया है।
बिहार की जातिवादी राजनीति में सुशील मोदी को ओबीसी नेता के रूप में भाजपा ने प्रोजेक्ट किया है, लेकिन सच्चाई यह है कि तकनीकी रूप से वे ओबीसी नहीं हैं। वे पैदा तो बिहार में ही हुए हैं, लेकिन उनका परिवार राजस्थान से आकर बिहार में बसा था और वे जिस भी जाति के हों, वह जाति ओबीसी की सूची में शामिल नहीं है। बिहार में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थ को ही अपर कास्ट माना जाता है। उनके अलावा अन्य गैरदलित गैरआदिवासी जातियों को ओबीसी ही माना जाता है, भले ही उनमें से कुछ ओबीसी की सूची में शामिल न हों। राजस्थान, पंजाब व अन्य जगह से आए लोग, जिनकी जाति स्पष्ट नहीं है, राजनैतिक रूप से ओबीसी ही माने जाते हैं, भले ही उनकी जातियां ओबीसी में शामिल नहीं हो। यही कारण है कि सुशील कुमार मोदी को व्यापारी जाति का ओबीसी माना जाता है, जबकि वे ओबीसी नहीं हैं।
अब भाजपा के ओबीसी नेता सुशील मोदी की सामाजिक पृष्ठभूमि पर सवाल खड़े करने लगे हैं। शुरुआती दिनों में उन्होंने नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट करने का समर्थन नहीं किया था। वे नीतीश कुमार के समर्थन में भी बयान देते रहते थे। उस काल के नरेन्द्र मोदी समर्थक उनके उन बयानों का हवाला देक उनको मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाए जाने का विरोध कर रहे हैं। पिछले उपचुनावों में भाजपा की हार के लिए भी उन्हें ही जिम्मेदार बताया जा रहा है। अब उनके विरोधी कह रहे हैं कि यदि उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनाया गया, तो पार्टी चुनाव हार जाएगी। शत्रुघ्न सिन्हा ने भी हार के लिए उनको ही जिम्मेदार बताया था।
नन्दकिशोर यादव के समर्थकों का कहना है कि यदि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया, तो यादवों का एक बड़ा वर्ग भाजपा की तरफ आ जाएगा और इस तरह लालू यादव कमजोर हो जाएंगे और भाजपा की जीत हो जाएगी। दूसरी तरफ उनके विरोधी कह रहे हैं कि यादव लालू का साथ छोड़ने वाले नहीं हैं, भले ही नन्दकिशोर यादव को भाजपा अपना उम्मीदवार घोषित करे। इसके ठीक उलट यादव विरोध भावना पालने वाले लोग नन्दकिशोर यादव के कारण भाजपा विरोधी हो जाएंगे और इस तरह पार्टी का नुकसान हो जाएगा।
शत्रुघ्न सिन्हा बिहार के एक बहुत बड़े नाम हैं। बिहार के भाजपा नेताओं की वर्तमान पीढ़ी में वे सबसे पुराना नाम भी हैं। उन्हें लोग 1970 के दशक से ही जानते हैं, जब उन्होंने फिल्मजगत में अपना कैरियर शुरू किया था। उनके प्रशंसकों की संख्या भी बहुत है। बिहार के लोग उन्हें अपने प्रदेश का मान राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ाने वाला समझते हैं। बिहार की जातिवादी राजनीति भी उनके अनुकूल है, क्योंकि वे उस जाति से आते हैं, जो राजनैतिक रूप से ओबीसी और दलितों के बीच भी स्वीकार्य है। वे कायस्थ हैं,। लेकिन उनकी समस्या यह है कि वे तरह तरह के बयान देकर अपने विरोधियों को अपने खिलाफ केस तैयार करने का मौका देते रहे हैं। वे कभी लालू की प्रशंसा कर देते हैं, तो कभी नीतीश की। वे किसी से भी अपने अच्छे रिश्ते होने का हवाला दे देते हैं। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जो थोड़े लोग शुरू में थे, उनमें से एक वे भी थे, लेकिन कभी कभी वे लालकृष्ण आडवाणी के समर्थन में भी बयानबाजी कर दिया करते थे। इन सबके कारण मुख्यमंत्री पद की उनकी दावेदारी कमजोर पड़ी हुई है। लेकिन यदि भाजपा को जीत दिलाने की सामथ्र्य बिहार में रखता है, तो उसमें शत्रुघ्न सिन्हा सबसे आगे दिखाई पड़ते हैं।
चुनाव के पहले भाजपा किसी को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाएगी भी या नहीं- यह तो अभी स्पष्ट नहीं है, लेकिन इस पद के कारण अभी से भाजपा में घमासान मचा हुआ है और उसके विरोधी उसका मजा ले रहे हैं। (संवाद)
कौन बनेगा मुख्यमंत्री: बिहार भाजपा में घमसान
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-09-24 10:06
बिहार विधानसभा चुनाव अभी एक साल से भी ज्यादा दूर है, लेकिन भारतीय जनता पार्टी के स्थानीय नेताओं के बीच मुख्यमंत्री का दावेदार बनने की होड़ अभी से लगी हुई है। शत्रुघ्न सिन्हा ने इस होड़ में अपने को शामिल करते हुए बयान दे डाला है कि मुख्यमंत्री पद के योग्य अनेक भाजपा नेता बिहार में हैं और वे खुद भी उन नेताओं में एक हैं। उन्होंने कुछ अन्य नेताओं के नाम भी गिना डाले हैं, लेकिन उनके कहने का अभिप्राय यह था कि इस पद के लिए उनके नाम पर भी गंभीरता से विचार होना चाहिए।