गडकरी का पुतला दिल्ली प्रदेश जनता दल (यू) के कार्यकत्र्ताओं ने जलाया। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की राज्य इकाइयों के अध्यक्षों ने उनकी निंदा करते हुए बयान जारी कर दिए। वे नितिन गडकरी के एक बयान के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रहे थे, जिस बयान में श्री गडकरी ने कथित तौर पर दिल्ली और मुम्बई में बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के भारी संख्या में आ जाने से उत्पन्न स्थिति और उसके समाधान पर दिया था।

श्री गडकरी ने दिल्ली प्रदेश के भाजपा पदाधिकारियों और विधायकों को संबोधित करते हुए दिल्ली और मुम्बई की बढ़ती आबादी के बारे में कुछ कहा था। प्रचारित हुआ कि उन्होंने उत्तर प्रदेश और बिहार से आने वाले लोगों को इन महानगरों की प्रमुख समस्या बताई। फिर क्या था, दिल्ली प्रदेश जनता दल (यू) की इकाई ने जंतर मंतर पर प्रदर्शन कर उनका पुतला ही जला दिया। हालांकि बाद में श्री गडकरी ने साफ किया कि उन्होंने अपने भाषण में किसी राज्य का तो उल्लेख ही नहीं किया था और न ही बाहर से इन महानगरों में आने वाला आबादी पर रोक लगाने की बात कही थी। उन्होंने बताया कि वे बढ़ती आबादी के लिए महानगरों में सुविधाएं कैसे बढ़ाई जाय, उस पर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे थे।

अब श्री गडकरी ने वास्तव में क्या कहा, यह तो वही बता सकते हैं, जिन्होंने उनका भाषण सुना था, लेकिन जिन्होंने उनका पुतला जलाया, वे अभी भी यही कर रहे हैं कि उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का समर्थन करते हुए बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों को दिल्ली के लिए समस्या पैदा करने वाला बताया था। कुछ दिन पहले ही शीला दीक्षित का समर्थन शिवसेना प्रमुख बाल टाकरे ने भी किया था। शिवसेना भी राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का घटक है, लेकिन उसके साथ जनता दल (यू) का कभी भी सीधा चुनावी गठबंधन नहीं होता है। इसलिए यदि जद (यू) बाल ठाकरे का पुतला जला दे तब भी राजग की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ेगा, पर भाजपा का मामला अलग है। भाजपा के साथ बिहार में नीतीश कुमार की सरकार चल रही है। झारखंड में भी दोनो शिबू सोरेन की सरकार में शामिल हैं।

सबसे बड़ी बात तों यह है कि इस साल के अंत में बिहार विधानसभा का चुनाव होना है। पिछला कई चुनाव भाजपा और नीतीश कुमार का दल आपस में मिलकर लड़ता रहा है, और अगला चुनाव भी दोनों मिलकर ही लड़ना चाहेंगे। इसलिए इस बीच ऐसा क्या हो गया कि जनता दल (यू) को भाजपा के नवनियुैत राष्ट्रीय अध्यक्ष का पुमला जलाना पड़ गया? श्री गडकरी ने क्या कहा और क्या नहीं कहा इस पर दो मत हो सकते हैं, लेकिन शिवसेना के बाल ठाकरे ने तो अपने अखबार में संपादकीय लिखकर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का समर्थन करते हुए बिहार और उत्तर प्रदेश के लोगों के खिलाफ आग उगली थी। यह सवाल किया जा सकता है कि जनता दल (यू) ने बाल ठाकरे का पुतला क्यों नहीं जलाया?

यहां घ्यान देने वाली एक बात यह है कि जनता दल (यू) बिहार की एक क्षेत्रीय पार्टी है। पिछले विधानसभा चुनाव में इसने झारखंड में भी अपनी मान्यता गंवा दी। दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में इसकी उपस्थिति नगन्य है। और श्री गडकरी का पुतला बिहार इकाई ने नहीं, बल्कि दिल्ली इकाई ने फूंका। उनके खिलाफ बयान भी उन तीन राज्यों की इकाइयो के अध्यक्षांे ने ही दिए। जाहिर है गडकरी के खिलाफ अपनी भावना का प्रदर्शन वे लोग कर रहे थे, जिनके राज्यों में भाजपा के साथ जद(यू) का गठबंधन नहीं होता।

लेकिन बिहार में तो भाजपा का जद यू) के साथ गठबंधन होता है और वहां इस साल के अंत में चुनाव भी होने वाले हैं। यदि वहां यह प्रचारित हो कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बाल टाकरे और राज ठाकरे की तरह ही बिहार विराधी भावना रखता है और यह प्रचार विरोधी राष्ट्रीय जनता दल नहीं बल्कि सहयोगी जनता दल ही करे, तो इससे भाजपा का वहां चुनावी नुकसान तो होगा ही, खुद जनता दल (यू) का भी वहां भारी नुकसान हो जाएगा। इसलिए गडकरी के इस पुतला दहन से यह सवाल उठता है कि क्या बिहार में जनता दल (यू) भाजपा से अलग होना चाहता है?

यह सवाल उसी समय से उठाया जा रहा है, जबसे नीतीश कुमार की सरकार बनी है। लोकसभा चुनाव के पहले जब उड़ीसा में नवीन पटनायक ने भाजपा का साथ छोड़ा और अकेले दम बहुमत हासिल कर लिया तो फिर बिहार में यह सवाल तेज हुआ कि क्या नीतीश कुमार भाजपा को छोड़कर बिहार में उड़ीसा को दुहराना चाहंेगे। लोकसभा चुनाव के बाद कुछ सांसद तो कांग्रेस के साथ मिलकर केन्द्र में सत्ता का सुख पाने के लिए हाथ पैर भी मारने लगे थे। लेकिन कुछ तों कांग्रेसी की बेरुखी और कुछ नीतीश कुमार की सख्ती के कारण वे सफल नहीं हो पाए। कांग्रेस को बिना जद(यू) के समर्थन के ही अपनी सरकार बन रही थी, इसलिए उसने उसे अपने साथ लेने में कोई उत्साह नहीं दिखाया। भाजपा का साथ छूटते ही नीतीश की सरकार अल्पमत में आ जाती और अपने अस्तित्व के लिए उसे कांग्रेस के समर्थन के अलावा अन्य दलों में तोड़फोड और निर्दलीयों के समर्थन पाने की सौदेबाजी करना होता। नीतीश कुमार जोड़तोड़ और सौदेबाजी के मिजाज वाले नेता नहीं हैं। यदि उनका ऐसा मिजाज होता, तो वे 2000 में ही मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी को बचा लेते।

इसलिए लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ केन्द्र में सरकार में शामिल हाने की इच्छा रखने वालों को नीतीश ने तवज्जों नहीे दी और भाजपा के साथ दल का साथ बना रहा। अब बिहार में जब चुनाव नजदीक आ रहे हैं, तो एक बार फिर भाजपा के साथ जनता दल (यू) के चुनाव लड़ने या न लड़ने को लेकर अठकलबाजी हो रही है। गडकरी पुतला दहन ने इस अटकलबाजी को तेज करने का काम किया है। लेकिन खुद नीतीश कुमार भाजपा से अलग होने का खतरा मोल नहीं लेना चाहेंगे, क्योंकि पिछले साल विधानसभा के 18 क्षेत्रों के उपचुनाव में लालू और पासवान की जोड़ी की सफलता को वे देख चुके हैं। लेकिन जो अभी भी कांग्रेस के साथ मिलकर केन्द्र सरकार में शामिल होना चाहते हैं, वे तो यही चाहेंगे कि भाजपा से जद (यू) का साथ छूटे। (संवाद)