वे जनता दल से निकली सभी पार्टियों को एक करना चाहते हैं। सच तो यह है कि जनता दल का गठन ही अनेक पार्टियों के एक दूसरे के साथ हाथ मिलाने के कारण हुआ था और जनाधार के नजरिए से उनमें सबसे बड़ा दल लोकदल था। ओम प्रकाश चैटाला, अजित सिंह, मुलायम सिंह यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार और नवीन पटनायक के पिता बीजू पटनायक लोकदल के ही थे। इसलिए आप चाहें तो इस जनता परिवार को लोकदल परिवार भी कह सकते हैं। और लोकदल के सबसे बड़े नेता चैधरी चरण सिंह ही हुआ करते थे। इसलिए अब ये नेता चैधरी चरण सिंह का नाम लेकर आपस में जुड़ने की कोशिश कर रहे हैं, पर आश्चर्य की बात है कि वे अपने को जनता परिवार का कह रहे हैं, जबकि उन्हें अपने को लोकदल परिवार का कहना चाहिए। अजित सिंह और ओमप्रकाश चैटाला की पार्टी के नाम में अभी भी लोकदल शब्द शामिल है। अजित सिंह की पार्टी का नाम भारीतय लोकदल है, तो ओम प्रकाश चैटाला की पार्टी का नाम इंडियन नेशनत लोकदल है।
ये सांप्रदायिक शक्तियों को सत्ता से दूर रखने के लिए जनता परिवार को एक रखने की बात कर रहे हैं। यह तो कहने की बात है, लेकिन यदि आप इन नेताओं की निजी राजनीति और जरूरतों की ओर देखें, तो पाएंगे कि कोई अपनी दिल्ली का सरकारी बंगला बचाने के लिए एक हो रहा है, तो कोई अपनी संसद की सदस्यता बचाए रखने या फिर संसद में वापस आने के लिए सांप्रदायिकता का राग अलाप रहा है। चैधरी चरण सिंह का नाम भी सरकारी बंगला बचाने के लिए ही उभर कर सामने आया है, अन्यथा जनता परिवार के ये नेता तो उनका नाम लेना छोड़ चुके थे। यदि कोई यह पता करे कि इन दलों ने पिछली बार कब चैधरी साहब की तस्वीर का इस्तेमाल अपने पोस्टर पर किया था, तो हकीकत सामने आए जाएगी। चैधरी अजित सिंह तो चरण सिंह के बेटे हैं, इसलिए वे उनकी तस्वीर का इस्तेमाल करते रहे होंगे, लेकिन अन्य पार्टियों और नेताओं ने पिछले दो ढाई दशको से उनकी तस्वीर का इस्तेमाल शायद ही कभी किया होगा।
बात चैधरी चरण सिंह की तस्वीर की ही नहीं, उनका जन्म दिवस तक ये नेता नहीं मना रहे थे। किसी मौके पर उन्हें शायद ही याद किया जाता हो, लेकिन अब इनकी अपने पर बन आई है, तो सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे को उठाकर चैधरी चरण सिंह का नाम लेकर एक दूसरे से जुड़कर एक राजनैतिक ताकत बनने की कोशिश कर रहे हैं।
चैधरी चरण सिंह कहा करते थे कि सौ मुर्दे को मिलाकर एक जिंदा इंसान नहीं बनाया जा सकता। जनता परिवार को एक करने की कोशिशों के बारे में भी यही कहा जा सकता है। नीतीश कुमार हरियाणा विधानसभा चुनाव में ओमप्रकाश चैटाला के इंडियन नेशनल लोकदल के लिए चुनाव प्रचार कर रहे हैं, लेकिन वे एक वोट भी चैटाला के दल के उम्मीदवार को नहीं दिला सकते। उसी तरह ओमप्रकाश चैटाला बिहार में नीतीश कुमार के दल को एक वोट नहीं दिलवा सकते। पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा को भी परिवार की एकता में शामिल करने की कोशिश हो रही है, लेकिन कर्नाटक से बाहर उनकी कहां पहुंच है? और कथित जनता परिवार के नेताओं की कर्नाटक में क्या हैसियत है?
उत्तर प्रदेश में अजित सिंह और मुलायम सिंह यादव एक होकर शायद एक दूसरे को कुछ लाभ पहुंचा सकते हैं। वे बीच बीच में एक होते भी रहे हैं और एक होने के बाद अलग भी हो जाते हैं। कोई ऐसी पार्टी नहीं रही, जिसके साथ अजित सिंह ने हाथ नहीं मिलाया हो। वे कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के मंत्री भी रह चुके हैं और भाजपा के नेतृत्व वाली केन्द्र सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं। उत्तर प्रदेश की राजनैतिक अस्थिरता के दौर में अपने दल के कुछ विधायकों के बूते वे मुख्यमंत्री बनने की कोशिश भी कर चुके हैं, लेकिन उसमें वे कभी सफल नहीं हुए। इसलिए जब उनके राजनैतिक जीवन का अंत होता दिखाई दे रहा है, तो मुलायम सिंह शायद ही उन्हें बचाने की कोशिश करें।
आज ये नेता एक हो रहे हैं, पर इस सवाल का उनके पास क्या जवाब है कि आखिर वे अलग ही क्यों हुए थे? ओमप्रकाश चैटाला के अलग होने की बात समझ में आती है, क्योंकि उनके पिता देवी लाल को उपप्रधानमंत्री पद से हटा दिया गया था और खुद ओमप्रकाश चैटाला का भी जनता दल में काफी विरोध हो रहा था, पर अन्य नेता तो अलग ही अपने अपने स्वार्थों की वजह से हुए। आज वे भारतीय जनता पार्टी के विरोध के नाम पर एक हो रहे हैं, लेकिन लालू और मुलायम की पार्टी को छोड़कर और सभी दल कभी न कभी भाजपा के साथ रह चुके हैं। वैसे खुद लालू यादव और मुलायम सिंह यादव पहली बार भाजपा के समर्थन से ही सत्ता में आए थे। लेकिन बाबरी मस्जिद के विघ्वंस के बाद भी लालू और मुलायम के अलावा अन्य सभी दल भाजपा के साथ सत्ता और चुनावों में गठबंधनक कर चुके हैं। जनता दल के कुछ विभाजन ही भारतीय जनता पार्टी के साथ जुड़ने की जद नेताओं की इच्छा के कारण हुआ था। जनता दल के नाम के समापन ही उस समय हुआ था, जब इसका एक धड़ा भाजपा से हाथ मिला रहा था। जब देवेगौड़ा ने इसका विरोध किया था। जनता दल विभाजित होकर जनता दल(यू) और जनता दल (एस) बन गया था। जद(यू) भाजपा के साथ गया था और जद(एस) भाजपा के विरोध में था, हालांकि बाद में जद(एस) ने भी कर्नाटक में सरकार बनाने के लिए भाजपा का साथ स्वीकार कर लिया था।
जनता दल परिवार के नेताओं की विश्वसनीयता पूरी तरह धूमिल हो चुकी है। सवाल उठता है कि एक होने के बाद क्या उनकी विश्वसनीयता वापस आ जाएगी? काठ की हांड़ी आग पर दो बार तो नहीं चढ़ती, लेकिन ये नेता कुछ ऐसा होते ही देखना चाहते हैं। क्या ऐसा हो पाएगा? (संवाद)
भारत
राजनीति खतरे में पड़ने से बेचैन हो रहे नेता
काठ की हांड़ी कितनी बार आग पर चढ़ेगी?
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-10-14 16:30
जनता दल से टूट टूट कर बनी पार्टियों के कुछ नेता एक बार फिर एक साथ आने के लिए बेचैनी से हाथ पांव मार रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनावों के नतीजे के बाद नवीन पटनायक को छोड़कर इस परिवार के सभी नेताओं की राजनीति खतरे में दिखाई पड़ने लगी। नीतीश कुमार को तो मुख्यमंत्री की अपनी कुर्सी तक गंवानी पड़ी। अजित सिंह अपने पूरे कुनबे के साथ चुनाव हार गए और खुद तीसरे स्थान पर आ गए। बेचारे को दिल्ली का बंगला छोड़ना पड़ा, हालांकि उसे बरकरार रखने के लिए उन्होंने आंदोलन तक छेड़ डाला। मुलायम सिंह यादव की पार्टी तो हारी, पर उनके कुनबे की जीत हुई। इसलिए वे अपने भविष्य के लिए पूरी तरह से चिंतित नहीं दिखे और उपचुनावों में जीत दर्ज करने के बाद वे कथित जनता दल परिवार के अन्य नेताओं की तरह बदहवाश नहीं, लेकिन मुलायम और नवीन पटनायक के अलावा अन्य सारे जनता नेता अपना अपना राजनैतिक बजूद बचाए रखने के लिए जबर्दस्त हाथ पैर मारने में लगे हुए हैं।