हालांकि यह भी सच है कि कांग्रेस को आज जिन चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, उनकी अनदेखी करना भी गलत होगा। आजादी के बाद कांग्रेस की लोगों में बहुत साख थी। कांग्रेस को एक ऐसी पार्टी माना जाता था, जिसके अंदर अनेक विचारधाराएं पनाह पा रही थीं। उस समय कांग्रेस अपने कार्यकत्र्ताओं के साथ सत्ता की भागीदारी करती भी दिखाई दे रही थी। लेकिन अब सत्ता कुछ लोगों के हाथों मंे ही केन्द्रित हो गई है। 10, जनपथ से जुड़ी एक चैकड़ी प्रतिबद्ध कांग्रेसियों की कीमत पर संगठन को चला रही है।

आजादी के बाद कुछ सालों को छोड़कर ज्यादातर कांग्रेस ही केन्द्र और राज्य में सत्ता पर काबिज रही है। मुस्लिम और दलित इसके मुख्य जनाधार होते थे, लेकिन नई नई पार्टियों के अस्तित्व में आ जाने के कारण इसका दलित आधार भी खिसका है और मुस्लिम आधार भी कमजोर हुआ है। अब देश के अनेक बड़े राज्यों मंे कांग्रेस सत्ता से बाहर हो चुकी है, इसके बावजूद कांग्रेस आज भी देश के गांव गांव मंे फेली हुई है। इसके पास एक राष्ट्रीय दृष्टिकोण है और यह धर्मनिरपेक्षता व देश की एकता और अखंडता में प्रतिबद्धता के लिए जानी जाती है। लेकिन पार्टी अब अपनी इस विशेषता का चुनावी फायदा उठाने में विफल हो रही है।

यह साफ है कि पार्टी अब आम लोगों से जुड़ पाने में विफल हो रही है। लोगों के प्रति इसकी प्रतिबद्धता भी अब संदिग्ध हो गई है। इसमें ऐसे अनेक लोग शामिल हो गए हैं, जो बेहद स्वार्थी हैं। हार का एक बड़ा कारण पार्टी का नेतृत्व है। नेतृत्व संकट के कारण संगठन भी कमजोर है। यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने इसे बुरी तरह पछाड़ दिया। इसके अलावा क्षेत्रीय पार्टियों के उदय होने के कारण भी कंाग्रेस को नुकसान उठाना पड़ रहा है। पर सच यह भी है कि इन पार्टियों के उदय के पीछे भी कांग्रेस का लोगों की आकांक्षाओं पर खरा उतरने में विफल होना ही है।

कांग्रेस पर नजर रखने वाले महसूस करते हैं कि इसकी इस दशा का कारण इसका सत्ता लोलुप होना है। सत्ता ही इसका उद्देश्य बनकर रह गई, जबकि सत्ता इसके लिए बड़े लक्ष्यों को हासिल करने का साधन होना चाहिए था। अब पार्टी के सामने समस्या इसे लोगों के पास तक ले जाने की है। इसे नई पीढ़ी के सामने अपनी प्रासंगिकता को साबित करना होगा और उनकी आशाओं और आकांक्षाओं पर खरा उतरना होगा। इस अपने को सामाजिक बदलाव का साधन बनना होगा न कि सत्ता के लिए मारामारी ही इसका उद्देश्य हो। इसके लिए कंाग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी को अपनी प्रतिबद्धता साबित करनी होगी। प्रियंका गांधी को कांग्रेस में लाना इसकी समस्या का हल नहीं है।

कांग्रेस अनेक मोर्चे पर चुनौतियों का सामना कर रही है। इसका सामाजिक आधार सिकुड़ रहा है। वैचारिक स्तर पर इसमें ठहराव आ गया है। सांगठनिक रूप से यह कमजोर हो चुकी है। एक समय यह एक लोकतांत्रिक पार्टी थी और बहुत मजबूत थी। चुनावी समर्थन के बदले में यह लोगों का कल्याण करने में भी सफल हुआ करती थी। लेकिन 1970 के बाद पार्टी का पतन शुरू हो गया। उसके बाद कांग्रेस को मजबूत बनाने की कोई कोशिश ही नहीं हुई। पार्टी सत्ता में रही, लेकिन इसने सत्ता का इस्तेमाल कर संगठन को मजबूत करने की कोशिश भी नहीं की।

कांग्रेस की सबसे बड़ी चुनौती तो अपने सफाए से बचने की ही है। कांग्रेस के फिर से जिंदा होने की कोई गारंटी नहीं, लेकिन इसके विरोधी भी यह नहीं कह सकते कि यह समाप्त हो जाएगी। पार्टी अनेक बार हारी है, लेकिन हारने के बाद वह फिर जीती है। भारत को दो मजबूत राष्ट्रीय पार्टी चाहिए और इसके लिए भारतीय जनता पार्टी के साथ साथ कांग्रेस को भी अपना अस्तित्व बचाए रखना होगा। (संवाद)