इसका मूल है कांग्रेस के प्रति उनके द्वारा दिखाया गया शुरुआती रवैया। देश को आजादी मिलते ही वामपंथियों ने नारा लगाना शुरू किया, ’’यह आजादी झूठी हे, देश की जनता भूखी है।’’ आजादी के बाद देश की सबसे बड़ी राजनैतिक ताकत कांग्रेस ही थी, इसलिए कांग्रेस के प्रति उस तरह का रवैया रखना समझ में आता है।

लेकिन कांग्रेस के कमजोर होते जाने के बाद भी वामपंथियों ने उसका विरोध करना जारी रखा। इसका एक कारण यह था कि देश के जिन तीन राज्यों मंे कम्युनिस्ट ज्यादा मजबूत थे, वहां उनका मुख्य मुकाबला कांग्रेस से ही हुआ करता था। वे तीन राज्य थे- पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल।

वैसा करते समय कम्युनिस्टों ने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि इन तीन राज्यो के बाहर वाले इलाके में राजनीति पर क्या असर पड़ेगा, जहां वे खुद बहुत कमजोर हैं। उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि कांग्रेस के पतन के बाद केन्द्र में कौन सी शक्ति अपना सिर उठाएगी।

सीपीएम के दो बड़े केन्द्रीय नेताओं के बीच वैचारिक संघर्ष इसी को लेकर हो रहा है। वे दो नेता हैं प्रकाश कारत और सीताराम येचुरी। प्राकश कारत सीपीएम के महासचिव हैं, जबकि सीताराम येचुरी सीपीएम के पोलित ब्यूरो के सदस्य हैं। सीताराम येचुरी प्रकाश के घोर कांग्रेस विरोध को केन्द्र में भाजपा की सरकार आने के लिए जिम्मेदार बता रहे हैं और उन्हें कमजोर करने की कोशिश कर रहे हैं, ताकि वे महासचिव खुद बन सकें। गौरतलब है कि प्रकाश कारत का कार्यकाल समाप्त हो रहा है और पार्टी संविधान के अनुसार वे अगले कार्यकाल में महासचिव नहीं बन सकते। वे कोशिश कर रहे हैं कि उनके विचारों को कोई समर्थक ही इस पद पर बैठे और सीताराम येचुरी इसे पाने में सफल न हों।

अगले महासचिव के रूप में सीताराम येचुरी के चुने जाने में दो कारणों की भूमिका हो सकती है। एक कारण तो केन्द्र में वाम और लोकतांत्रिक विकल्प बना पाने में प्रकाश की विफलता है और दूसरा सीपीएम के स्टाॅक का खुद घट जाना है। सीपीएम के लोकसभा सांसदों की संख्या 2009 में घटकर 16 हो गई थी, जो 2014 में और भी घटकर 9 हो गई। प्रकाश के लिए यह भी परेशानी का कारण हो गया है कि सीपीएम की तीन दशक पुरानी सरकार पश्चिम बंगाल में चली गई और उनकी जगह ममता बनर्जी सत्ता में आ गई।

इससे भी चिंता का कारण यह है कि निकट भविष्य मे वामपंथियों के फिर से उबरने की संभावना भी नहीं दिखाई दे रही है, क्योंकि भारतीय राजनीति पर बाजारवादी शक्तियों का दबदबा बहुत बढ गया है। सच कहा जाय, तो दक्षिणपंथी ताकतों का जितना दबदबा आज देश की राजनीति पर है, उतना पहले कभी नहीं था।

1960 के दशक में वामपंथियों ने सोचा था कि यदि कांग्रेस का पतन होगा, तो उसकी जगह वे लेंगे। लेकिन आधे शतक के बाद वामपंथियों की उस सोच पर हंसा ही जा सकता है। कांग्रेस के पतन के साथ कम्युनिस्टों का अपने आप उत्थान हो जाएगा। इस तरह की बात सोचते समय उनके दिमाग में यह बात क्यों नहीं आई कि कोई तीसरी शक्ति भी कांग्रेस का स्थान ले सकती है।

कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन भी हुआ। सबसे पहले तो 1964 में उसका एक विभाजन हुआ। तब सीपीएम का गठन विभाजन के बाद हुआ था। उसके बाद 1969 में एक और विभाजन हुआ। सीपीएम का चीन विरोधी तबका तब उससे टूटकर नक्सलाइट बन गया और उसने चीन के चेयरमैन को अपना चेयरमैन कहना शुरू कर दिया। 1962 के भारत चीन युद्ध में भी इनका रवैया चीन समर्थक का रहा था। उस समय वे तत्व सीपीआई में ही थे। इन कारणों से लोगों में यह संदेश गया कि ये कम्युनिस्ट राष्ट्रविरोधी हैं।

यही कारण है कि कांग्रेस के पतन के साथ साथ भाजपा का उदय होने लगा। भाजपा आज न केवल केन्द्र की सत्ता में है, बल्कि पश्चिम बंगाल में भी इसने अपने को विस्तार देना शुरू कर दिया है। (संवाद)