यही कारण है कि जब कभी भी हार के कारण उन्हें उनका भविष्य अंघकारमय दिखाई पड़ता है, वे एक साथ आने लगते हैं और अपने मरे हुए संगठन में जान फूंकने की कोशिश करने लगते हें।
इस बार भी यही हो रहा है। नरेन्द्र मोदी का उदय एक बड़े नेता के रूप में हो चुका है और उनके सामने सब बौने दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस का प्रथम परिवार भी मोदी के कद से छोटा गया है। अब मोदी का सामना करने में अकेले असमर्थ लोगों के पास कोई विकल्प नहीं है कि वे आपस में मिलकर उनका सामना करें।
बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल(यू) वहां के विधानसभा उपचुनाव मिल कर लड़े और उसमें उन्हें सफलता मिली। इसके कारण अब मोदी के सामने कमजोर पड़ रहे नेताओं का उत्साह बढ़ गया है। उन्हें लगता है कि आपस में मिलकर वे मोदी का सामना कर सकेंगे। जनता दल मोर्चे का मुख्य जोर उत्तर भारत के हिंदी भाषी राज्य हैं। इस मोर्चे में समाजवादी पार्टी की भूमिका अहम होगी और मुलायम सिंह यादव मोर्चे के नेता हो सकते हैं। इसका कारण यह है कि देश की सबसे अधिक आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार है और मुलायम की पार्टी ने उपचुनावों में बेहतरीन प्रदर्शन किया था, हालांकि लोकसभा चुनाव में उसका भी सूफड़ा साफ हो गया था और मुलायम के परिवार के सदस्यों के अलावा उसके सारे उम्मीदवार चुनाव हार गए थे।
पूर्व प्रधानमंत्री देवेगौड़ा भी एकता की कवायद में शामिल हो गए हैं। इसमें राष्ट्रीय लोकदल के भी शामिल होने की संभावना हैं। पूर्व प्रधानमंत्री चैधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह इसके अध्यक्ष हैं। यदि ये पार्टियां आपस में मिलकर कोई एकीकृत पार्टी बनाती है, तो इसका नाम समाजवादी जनता पार्टी हो सकता है।
उद्देश्य चाहे जो भी हो, यह मानना कठिन है कि मुलायम और उनसे जुड़े लोग निकट भविष्य में कुछ कर भी पाएंगे। 2014 का साल 1977 नहीं है। सिर्फ इन नेताओं और इनकी पार्टियों के एक साथ हाथ मिला लेने से कुछ नहीं होगा। सच कहा जाय, तो यह 1977 में भी काम नहीं आया था। उसके कारण इन्दिरा गांधी को नई जिंदगी मिली थी और 1980 में वह दुबारा भारी बहुमत के साथ सत्ता में आई थी।
उसके बाद सारे प्रयास बेकार ही गए हैं। एक प्रयास 2008 में भी हुआ था, जब मायावती को उस समय संभावित प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया गया था, जब लग रहा था कि मनमोहन सिंह की सरकार गिर भी सकती है। जब अमेरिका के साथ परमाणु करार के मसले पर केन्द्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। वह प्रस्ताव लाने में भाजपा और वामपंथी साथ साथ थे। इस समय तस्वीर में वामपंथी नहीं हैं, हालांकि इस तरह की एकता में वामपंथी हमेशा महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते रहे हैं। लेकिन चुनावों में हार के बाद अब वामपंथी केन्द्र में ज्यादा उछल कूद करने में दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं।
तस्वीर में मायावती भी नहीं है। इसका कारण यह है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुलायम की मुख्य प्रतिद्वंद्वी वही हैं। जनता दल से निकले बीजू जनता दल भी इससे अलग है। इसका कारण यह है कि उसके नेता नवीन पटनायक का आर्थिक दर्शन इन लोहियावादियों के आर्थिक दर्शन से बिल्कुल अलग है।
लेकिन 1977 को दुहराना असंभव है। इसका कारण यह है कि इस बार मोर्चाबंदी कर रहे नेता थके हुए घोड़े हैं। सबसे ऊपर कोई न कोई दाग लगा हुआ है। सरकार में रहकर भी उनमें से अनेक ने लोगों को निराश किया है। (संवाद)
भारत
संयुक्त जनता दल के सामने समस्याएं ही समस्याएं
1977 से बिल्कुल अलग है 2014
अमूल्य गांगुली - 2014-11-11 11:19
हारे हुए महारथी फिर इकट्ठे हो रहे हैं। उनकी जीवटता को सलाम करना होगा। तीसरे मोर्चे की बार बार विफलता के बावजूद भी गैर कांग्रेस गैर भाजपा विकल्प के प्रयासों में वे अभी भी लगे हुए हैं। लगता है कि 1977 में लोकतंत्र बचाने के लिए की गई एकजुटता की सफलता अभी भी उनके हौसले को बढ़ाने का काम करती है।