नरेन्द्र मोदी और अमित शाह कांग्रेस द्वारा पैदा किए गए शून्य को भरना चाहते हैं। कांग्रेस का तेजी से पतन हो रहा है और पिछले लोकसभा चुनाव व उसके बाद के दो चुनावों के नतीजे उसके तेज पतन की कहानी बयान कर रहे हैं। यह सच है कि भाजपा तुरंत अपने सहयोगी दलों से पीछा छुड़ाने नहीं जा रही, लेकिन सहयोगी दल सौदेबाजी की ताकत खो चुके हैं, क्योंकि नरेन्द्र मोदी सरकार अपने अस्तित्व के लिउ उनपर आश्रित नहीं हैं।

एक समय था जब भारतीय जनता पार्टी देश के अधिकांश दलों के लिए अछूत थी। कुछ पार्टियां उसके साथ अटल बिहारी वाजपेयी की उदार छवि के कारण उससे जुड़ी थीं। उसके कारण ही 1998 और 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी थी। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले भी गठबंधन सहयोगियों की भाजपा तलाश कर रही थी, क्योंकि तब वह अपने बहुमत के लिए बहुत आश्वस्त नहीं थी।

पर भारतीय जनता पार्टी अब अपनी रणनीति बदल रही है। गठबंधन के बदले यह दूसरी पार्टियों के नेताओं को मिलाने में लगी हुई हैं। उसने कांग्रेस के राव इन्द्रजीत सिंह और राव बीरेन्द्र सिंह को मिला लिया। राजद के रामकृपाल यादव को भी उसने अपनी पार्टी में मिला लिया। कांग्रेस के अजातशत्रु भी अब भाजपा में हैं।

नरेन्द्र मोदी के राष्ट्रीय परिद्श्य पर उभरने के साथ ही भाजपा के लिए स्थितियां बदलने लगीं। जनता दल(यू) ने तो खुद भाजपा का साथ छोड़ दिया। इससे वहां भाजपा को ही लाभ हुआ। उसके कारण उसने वहां ज्यादा सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए और ज्यादा जीत भी हासिल की। नुकसान तो जनता दल(यू) का ही हो गया। हारकर नीतीश कुमार को लालू यादव से हाथ मिलाना पड़ा। हाथ मिलाने का फायदा दोनों को उपचुनावों मे हुआ, जहां ज्यादा सीटें भाजपा हार गईं।

लोकसभा चुनाव में शानदार सफलता पाने के बाद भारतीय जनता पार्टी के आत्मविश्वास मे वृद्घि हुई और उसने हरियाणा और महाराष्ट्र चुनाव अकेले दम लडने का फैसला किया। उसने वह फैसला इस तथ्य के बावजूद किया कि दोनों राज्यों में भाजपा के पास कोई खास जनाधार नहीं था। अब दोनों राज्यों में भाजपा की सरकार है।

लालकृष्ण आडवाणी की शिवसेना को साथ लेकर सरकार बनाने की इच्छा के बावजूद अमित शाह ने महाराष्ट्र में अकेले सरकार बनाने का फैसला किया। इससे जाहिर हो गया है कि लालकृष्ण आडवाणी की भाजपा में अब कोई पूछ नहीं रह गई है।

पंजाब में अकाली दल के साथ भी भाजपा के ज्यादा निभने की उम्मीद अब नहीं रह गई है। प्रदेश के भाजपा नेताओं क बयान से लगता है कि अकाली दल से अब वे ऊबने लगे हैं और उनके साथ उनका संबंध समाप्त हो सकता है। भारतीय जनता पार्टी इस बात को लेकर परेशान है कि अकाली दल के अध्यक्ष प्रकाश सिंह बादल ले हरियाणा विधानसभा चुनाव में ओम प्रकाश चैटाला की पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल के लिए प्रचार किया था। नरेन्द्र मोदी ने अकाली दल का प्रतिनिधित्व पिछले विस्तार में नहीं बढ़ाया, जबकि उन्होंने तेलुगू देशम का प्रतिनिधित्व बढा दिया।

दक्षिण भारत में भारतीय जनता पार्टी अपने पांव पसारने की कोशिश कर रही है। अब कर्नाटक में सफल भी हो गई है। वहां उसकी सरकार भी एक बार बन चुकी है। वहां की लोकसभा की ज्यादातर सीटों पर उसी के उम्मीदवार जीते हैं।

तमिलनाडु में जयललिता को सजा मिलने के बाद भाजपा वहां अपने लिए संभावना बेहतर मान रही है। करुणानिधि भी अधिक उम्र के कारण अब राजनीति करने में पहले की तरह समर्थ नहीं हैं। उनके बेटे आपस में ही लड़ रहे हैं और बेटी पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा है। भारतीय जनता पार्टी वहां की छोटी छोटी पार्टियों और उनके नेताओ की सहायता से अपनी स्थिति मजबूत करने की रणनीति बना रही है।

इसमे कोई शक नहीं कि गठबंधन राजनीति के समाप्त होने से देश में राजनैतिक स्थिरता आएगी और सरकार तीव्र निर्णय कर सकेगी, लेकिन यह मानना गलत होगा कि गठबंधन का युग समाप्त हो ही जाएगा। भारतीय जनता पार्टी में भी कांग्रेस वाली बुराइयां आ रही हैं और वहां भी आलाकमान का बोलबाला शुरू हो गया है। इसके कारण क्षेत्रीय दलों की आवश्यकता शायद बनी रह सकती है। (संवाद)