वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा है कि ज्योति बसु औ हरकिशन सिंह सुरजीत 2004 की यूपीए सरकार के मुख्य शिल्पी थे। इसका कारण है कि वे कि यथार्थवादी थे और विपरीत स्थितियों में दो अप्रिय चीजों में किस एक का चयन किया जाय, इसकी समझ रखते थे।

बसु और सुरजीत दोनों इस बात को समझते थे कि कांग्रेस का समर्थन नहीं करने का मतलब भाजला को फायदा पहुंचाना होगा। कांग्रेस विरोधी उत्साह में पार्टी ने 1977 और 1989 में दो बार भाजपा को फायदा पहुंचा दिया था। कांग्रेस को सत्ता से बाहर रखने के चक्कार में वामपंथियों ने 1989 में वीपी सिंह सरकार का समर्थन किया था, जो भाजपा के समर्थन से चल रही थी। उसके कारण भाजपा को फायदा हो गया। उस गलती का अहसास बसु को हुआ था और बाद में उन्होंने भाजपा से संबंध नहीं बनाने की रणनीति अपनाई। इसके कारण 1996 में कांग्रेस के समर्थन से देवेगौड़ा की सरकार बनी।

यही कारण है कि 2004 में बसु ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व में सरकार गठन को संभव बनवाया। हालांकि जब वह सरकार अपना कार्यकाल पूरा करने को थी, तो उनकी पार्टी ने उस सरकार से अपना समर्थन वापस ले लिया। बसु समर्थन वापसी के पक्ष में नहीं थे, लेकिन पार्टी ने उनकी बात नहीं मानी और समर्थन वापसी का एक ऐसा निर्णय लिया, जिससे पार्टी को नुकसान ही हुआ।

जैसा कि अमर्त्य सेन का कहना है कि मनमोहन सरकार से समर्थन वापस लेकर वामपंथियों ने स्टालिन की परंपरा का निर्वाह किया। बसु इस निर्णय से असहमत थे, तो इसका मतलब यह नहीं कि वे सटालिन से छोटे माक्र्सवादी थे, बल्कि इसका कारण यह था कि वे भारत में वामपंथ की कमजोर हालत को समझते थे। उन्हें पता था कि उस तरह के निर्णय का क्या असर वामपंथी राजनीति पर पड़ेगा।

ज्योति बसु की सलाह को नहीं मानने का असर वामपंथी दलों पर पड़ा। 5 साल पहले की तुलना में उनकी ताकत बहुत घट गई। सीपीएम सबसे बड़ी वामपंथी पार्टी है, उसका तो भारी नुकसान हुआ ही अन्य पार्टियां भी घाटे में रहीं। जब बड़ी पार्टी के पैरों के नीचे की जमीन खिसक रही हो तो अन्य सहयोगी पार्टियों का हाल तो उससे भी ज्यादा खराब होता है। बसु पार्टी की खराब होती हालत को असहाय भाव से देख रहे थे, क्योंकि वे अपने से बहुत ही कम उम्र के पार्टी नेताओं से विचारधारा के मुद्दे पर ज्यादा उलझना भी नहीं चाहते थे और खराब स्वास्थ्य भी उन्हें पार्टी के कामों से दुर रख रहा था। बसु अब जब नहीं रहेख् तो देश का राजनैतिक वर्ग यही निष्कर्ष निकाल सकता है कि उनकी उपस्थिति में उनकी पार्टी और भी ज्यादा गलतियां करेंगी।

हम यह नहीं कह सकते कि बसु से गलतियां हुई ही नहीं। उनकी सरकार के दौरान उनके राज्य में उद्योगों का बुरा हाल हुआ। शैक्षिक संस्थानों के स्तर में भी गिरावट आई। प्रेसिडेंसी कालेज जैसे संस्थान ने अपनी चमक खो दी। यह सब उनके कार्यकाल में ही हुआ और कारण था राजनैतिक हस्तक्षेप। पार्टी के अंदर समाज विरोधी तत्वों का प्रवेश भी उनके मुख्यमंत्री रहते ही हो गया था। नंदीग्राम की घटनाओं के बाद पार्टी का जो पतन हो रहा है, उसके बीज भी उनके समय में ही बोए गए थे। यही कारण है कि हम उन्हें विशाल व्यक्तित्व का स्वामी मानते हुए भी यही कह सकते हैं कि उनके पांच मिट्टी के बने हुए थे। (संवाद)