उन लोगों के बीच बातचीत का मुख्य मुद्दा नरेन्द्र मोदी की बढ़ती ताकत और भाजपा का हो रहा उभार था। विज्ञान भवन में वह सम्मलेन हो रहा था। ममता बनर्जी वामपंथी नेताओं से कह रही थीं कि हमें भारतीय जनता पार्टी को बढ़ने से रोकना है और आप बताएं कि आपलोग इस दिशा में क्या कर रहे हैं।

ममता बनर्जी के उस सवाल पर सीताराम येचुरी ने पूछा कि पश्चिम बंगाल तो आपके हाथ में है, इसलिए आप बताइये कि उसे वहां रोकने के लिए आप क्या कर रही हैं? उस सवाल का कोई जवाब ममता के पास नहीं था और वह चुप रहीं।

सच यह भी है कि ममता बनर्जी द्वारा सांप्रदायिक ताकतों के खिलाफ लड़ने की बात गले में पड़ने वाली नहीं है। इसका कारण यह है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार हिन्दुत्व के नारे पर सत्ता में नहीं आई है, बल्कि सबका साथ, सबका विकास उनका नारा था और बेहतर सरकार देने के उनके वायदे ने युवाओं को उनके साथ जोड़ा।

आज मतदाता बेहतर जीवन और एक गतिशील प्रशासन चाहते हैं और उनके इस मूड को देखते हुए कम्युनल और सेकुलर विभाजन पर बात करना कुछ अटपटा लग सकता है। सिर्फ अपने आपको सेकुलर कह देने से किसी नेता को जनता स्वीकार नहीं करने वाली है, क्योंकि उस नेता का अपना रिकार्ड भी देखा जाएगा। लोग यह देखते हैं कि सत्ता में रहकर वे लोग कर क्या रहे थे। सेकुलर नेताओं की समस्या यह है कि वे इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं हैं कि मतदाताओं के मूड बदल रहे हैं। किसी सकारात्मक एजेंडे को सामने लाए बिना सिर्फ सेकुलरिज्म का राग अलापना अदूरदर्शितापूर्ण है। यह नेहरू की विरासत के साथ भी नाइंसाफी है।

क्या ये पार्टियां नरेन्द्र मोदी के उभार और भाजपा के उत्थान को गठबंधन बनाकर रोक पाएंगी? क्या भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ वे कांग्रेस के नेतृत्व में इकट्ठा होने के लिए तैयार हो पाएंगी? दूसरी तरफ कांग्रेस को खुद पता नहीं है कि वह अकेली चुनाव लड़ना चाहती है या गठबंधन करना चाहती है। ममता और वामपंथी पार्टियों के बीच गठबंधन तो अव्यावहारिक दिखाई दे रहा है, लेकिन नीतीश और लालू के बीच गठबंधन में कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि दोनों एक ही विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं।

पिछले कुछ महीनों से जनता दल के बिखराव से बनी पार्टियों के नेताओं के एक होने के प्रयास दिखाई पड़ रहे हैं। वे या तो पार्टियों के आपसी विलय की कोशिश कर रहे हैं या पार्टियों में गठबंधन की ओर आगे बढ़ रहे हैं। यह सब मोदी के डर से हो रहा है। उन नेताओं को लग रहा है कि यदि वे एक नहीं हुए तो मोदी लहर में डूब जाएंगे और उनका राजनैतिक खात्मा ही हो जाएगा। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद भारतीय जनता पार्टी ने मोदी के नेत्त्व में हरियाणा में बहुमत हासिल कर लिया है और महाराष्ट्र में भी वह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। दोनों राज्यों में आज उसकी ही सरकार है।

यह सच है कि इनमें से कुछ नेताओं ने 1977 और 1989 में भी गठबंधन की राजनीति की थी। लेकिन उस प्रकार की मोर्चेबंदी भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ इस समय करना कुछ जंचता नहीं है। अब ये नेता पहले की तरह न तो लोकप्रिय रहे हैं और न ही अब उनकी कोई सार्वजनिक विश्वसनीयता रही है।

अगर उन्हें यह लगता है कि वे 1977 और 1989 को दुहरा सकते हैं, तो वे भारी गलतफहमी के शिकार हैं और 2014 के चुनाव परिणामों का वे सही विश्लेषण कर नहीं पाए हैं। वे सभी सत्ता में रह चुके हैं और जनता के बीच अपनी विश्वसनीयता गंवा चुके हैं।

उनकी सफतला तो संदिग्ध है, लेकिन नेहरू जयंती ने उन्हें एक मंच पर निश्चय रूप से लाकर खड़ा कर दिया था। (संवाद)