पर ऐसी बात है नहीं। सच कहा जाय तो पिछले सभी चुनावों की भांति इस बार के चुनाव भी एक त्रिशंकु विधानसभा देती प्रतीत हो रही है। पिछले चुनाव में सिर्फ नरेन्द्र मोदी की सभाओं में लोग जुट रहे थे, लेकिन इस बार के चुनाव में लगभग सभी पार्टियों के नेताओं की सभाओं मंे अच्छी तादाद में लो जुट रहे हैं। जाहिर है, इस बार लोगों का रूझान एकतरफा नहीं है। वे सभी विकल्पों की ओर देख रहे हैं। यही कारण है कि वे सभी को सुन रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के नतीजे विधानसभा के चुनाव में क्यों नहीं दुहराए जाएंगे? इस सवाल के जवाब को समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि 2009 के विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 14 में से 8 पर जीत हासिल हुई थी, लेकिन विधानसभा के चुनाव में 81 में से मात्र 18 पर ही जीम हासिल हुई। यानी लोगों ने भाजपा को लोकसभा में तो ज्यादा पसंद किया, लेकिन विधानसभा में उसके ज्यादातर उम्मीदवारों को नकार दिया। 2009 का इतिहास यदि 2014 में भी दुहरा दिया जाय, तो आश्चर्य नहीं होगा।
भारतीय जनता पार्टी को भी ऐसा ही होने का भय सता रहा था और यही कारण है कि उसने इस बार झारखंड मंे गठबंधन कर लिया है। 81 में से 9 सीटें उसने अपने गठबंधन के सहयोगियों को दे दिया है। 8 सीटें सुदेश महतो के नेतृत्व वाले आल झारखंड स्टेडेंट्स यूनियन (आजसू) को दी हैं, तो एक सीट रामविलास पासवान की पार्टी लोकजनशक्ति पार्टी को दे दी है। ये दोनों जाति की राजनीति करने वाली पार्टियां हैं। आजसू कुर्मी जाति की पार्टी है, तो रामविलास पासवान की अपील भी अपनी जाति तक ही सीमित है, हालांकि उनकी जाति के लोगों की झारखड में दलितों की बीच भी बहुत कम आबादी है। इतनी सीटें छोड़़ने के कारण भाजपा के लिए बहुमत के आंकड़े को छूना और भी मुश्किल हो गया है, क्योंकि ज्यादा सीटों पर लड़कर समाज के ज्यादातर तबकों को वह टिकट दे सकती थी, पर उसने वैसा करना उचित नहीं समझा। जो गलती वह बिहार में नीतीश कुमार को महत्व देकर कर रही थी, वही गलती वह झारखंड में सुदेश महतो को महत्व देकर कर रही है।
जिस भाजपा ने हरियाणा और महाराष्ट्र के अपने सहयोगियों को छोड़कर वहां अकेला लड़ना उचित समझा और उसके कारण उन दोनों राज्यों मंे उसे सफलता भी मिली, उसने आखिरकार झारखंड मंे अपने लिए नये साथी क्यों खोज लिए, जबकि वह पिछले लोंकसभा चुनाव में वह अकेली बहुत सफल रही थी? यह सवाल राजनैतिक पंडितों को चक्कर मंे डालने वाला हो सकता है, लेकिन जो वहां की सत्ता के खेल से परिचित हैं, वे जानते हैं कि राजनैतिक अस्थिरता में वहां के एक मजबूत तबके का राजनैतिक स्वार्थ छिपा हुआ है और इसलिए वे राजनैतिक स्थिरता नहीं चाहते हैं। इसलिए यदि भाजपा 81 सीटों पर लड़कर 42 से ज्यादा सीटें जीत जाती, तो उसकी स्थिर सरकार होती और स्थिर सरकार को यह मजबूत लाॅबी पसंद नहीं करती है। कहने की जरूरत नहीं यह लाॅबी वही है, जो झारखंड की खनिज संपदा की लूट में लगी रहती है। इसीलिए एक अस्थिर सरकार सुनिश्चित करने के लिए उसने भाजपा का गठबंधन सुदेश महतो की पार्टी से करवा दिया। यदि यह गठबंधन बहुमत में भी आ जाता है और भाजपा 42 के आंकड़े को छू नहीं पाती, तो सुदेश महतो की पार्टी के विधायकों के बूते अस्थिरता का खेल जारी रखने में इस लाॅबी को सुविधा होगी और जो भी मुख्यमंत्री होगा, उसके इशारों पर नाचता रहेगा।
झारखंड विधानसभा के किसी भी चुनाव ने कोई स्थिर सरकार अबतक नहीं दी। पार्टी के नजरिए से देखा जाय, तो बिहार विधानसभा के चुनाव से गठित झारखंड विधानसभा ने ही एक स्थिर सरकार दी थी, लेकिन उसमें भी दो मुख्यमंत्री बने थे। पहले बाबूलाल मरांडी मुख्यमंत्री बने और उसके बाद अर्जुन मुंडा सीएम बने। अविभाजित बिहार में 2000 में हुए चुनाव में झारखंड क्षेत्र से भाजपा को 31 विधायक जीते थे। बाद में ये ही विधायक झाारखंड की प्रथम विधानसभा के सदस्य बने। उसके बाद हुए किसी भी चुनाव में भाजपा को उतनी सीटें नहीं मिलीं। भाजपा की ताकत लगातार घटती चली गई और इसका कारण नवगठित झारखंड मे नये नये स्थानीय दलों का उदय था। भाजपा का भी विभाजन हुआ और उसके नेता बाबूलाल मरांडी ने झारखंड विकास मोर्चा नाम की एक क्षेत्रीय पार्टी बना ली। जाहिर है, भाजपा की ताकत घट गई, पर वे क्षेत्रीय दल उसे लोकसभा चुनाव में ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा पाते थे। लेकिन विधानसभा चुनाव में लोग उनसे आकर्षित होते रहे हैं। पर इस बार नरेन्द्र मोदी को आजमाते हुए भाजपा अकेले सत्ता पाने की कोशिश कर सकती थी और वह शायद सफल भी हो जाती।
नरेन्द्र मोदी जातिवाद और भाई भतीजावाद के खिलाफ बोलकर लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। उनकी लोकप्रियता का एक कारण उनके क्षरा जातिवाद और भाई भतीजावाद पर किया जाने वाला हमला भी है, लेकिन आजसू और रामविलास पासवान के साथ गठबंधन कर वे झारखंड में न तो जातिवाद के खिलाफ बोल सकते हैं और न ही परिवारवाद के खिलाफ, क्योंकि आजसू एक जाति की पार्टी है, तो रामविलास पासवान परिवारवाद के लिए जाने जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है, लेकिन वह विधानसभा को त्रिशंकु होने से शायद रोक न सके। (संवाद)
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झारखंड में एक बार फिर त्रिशंकु विधानसभा की संभावना
गठबंधन कर भाजपा ने अपना नुकसान कर लिया
उपेन्द्र प्रसाद - 2014-11-26 11:29
झारखंड में पहले चरण का मतदान संपन्न हो गया है। 62 फीसदी हुए मतदान को प्रदेश के अपने मानदंड पर भारी मतदान कहा जा सकता है। पिछले लोकसभा में जितने मतदान हुए थे, उससे भी ज्यादा मतदान इस बार हो रहे हैं। हम कह सकते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में ज्यादा मतदान मोदी लहर के कारण हुआ। तो क्या यह माना जाय कि विधानसभा चुनाव आते आते मोदी की यह लहर और भी तेज हो गई है, जिसके कारण मतदान का प्रतिशत और भी बढ़ गया है? यदि इसका जवाब हां में है, तो यह मानना पड़ेगा कि अगली सरकार भाजपा की हो होगी, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 14 में से 12 सीटों पर जीत हासिल की थी और यदि जिस मोदी लहर के कारण उसकी वह बड़ी जीत संभव हुई थी, वह अभी भी मौजूद है, तो झारखंड में भाजपा की सरकार बनने में किसी को संदेह नहीं होना चाहिए।