लेकिन अभी भी यूनाइटेड कम्युनिस्ट पार्टी आॅफ नेपाल (माओवादी) उसके रास्ते में अड़ंगा डाल रहा है। उसके साथ कुछ मधेशी पार्टियां भी माओवादियों का साथ दे रही हैं। प्रचंड अभी भी अपने तरीके से संविधान निर्माण की प्रक्रिया में बाधा डाल रहे हैं। उनकी समस्या यह है कि लोगों का पहले जैसा समर्थन उनके साथ अब नहीं रहा, पर उनकी सत्ता की भूख अभी तक समाप्त नहीं हुई है। अब तो उन्हें खुद अपने माओवादियों का पूरा समर्थन हासिल नहीं है और उनका बाबू राम भट्टराई के साथ खटपट चल रही है। दोनों के अपने अपने अलग गुट हैं। उन दोनों की गुटबाजी भी संविधान को लागू करने के सामने रोड़ा बनकर आने लगती है।

प्रचंड का भट्टराई के साथ संबंध बहुत ही ज्यादा खराब हो गया है। दोनों माओवादियों के शिखर नेता रहे हैं। प्रचंड को भट्टराई भी कभी अपना नेता मानते थे। लेकिन सत्ता के पद पाने के बाद दोनों के बीच दूरी बढ़ती गई। एक समय प्रचंड नेपाल के राष्ट्रपति थे तो बाबूराई भट्टराई वहां के प्रधानमंत्री। लेकिन अब न तो प्रचंड राष्ट्रपति हैं और न ही भट्टराई प्रधानमंत्री। दोनों के बीच अपनी पार्टी के अंदर वर्चस्व की लड़ाई चल रही है।

एक समय था जब प्रचंड और भट्टराई के नेतृत्व वाली माओवादी पार्टी देश की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में चुनाव में उभरी थी। 2008 के चुनाव में उसे केन्द्रीय एसेंबली में 229 सीटें हासिल हुई थीं। वह 2013 के चुनाव में घटकर 80 हो गई। वोट प्रतिशत में 12 फीसदी की गिरावट आई। यह सब प्रचंड की जीवन शैली के कारण हुई। वे है तो कम्युनिस्ट, लेकिन लोगों ने देखा कि उनकी जीवन शैली कुछ और है। जैसे जैसे विलासिता भरी उनकी जीवन शैली के किस्से लोगों में फैले उनकी पार्टी का ग्राफ गिरता चला गया। उनकी पार्टी के अंदर भी प्रचंड का समर्थन कम होता गया। भट्टराई का रवैया भी कोई बहुत अच्छा नहीं था। उन्हें पार्टी के अंदर प्रचंड के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़नी चाहिए थी, लेकिन उन्होंने बदले में गुटबाजी का सहारा लेना शुरू कर दिया और पार्टी के अंदर अपने गुट के निर्माण में लग गए।

काठमांडु पोस्ट को दिए गए अपने एक इंटरव्यू में भट्टराई ने आशा जताई थी कि संविधान लागू होने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए, क्योंकि नये संविधान पर लगभग आम सहमति हो चुकी है। उन्होंने कहा कि मधेशी और जनजातीय पार्टियों ने भी इस पर सहमति दे दी है और वे मधेश में दो राज्यों के गठन के लिए तैयार हो गए हैं। उन्होंने कहा कि असली समस्या पुरानी संसदीय पार्टियों से आ रही है, जो संघीय राज्य व्यवस्था नहीं चाहते और उन्हें लगता है कि नेपाल का संविधान फेडरल नहीं बल्कि यूनिटरी हो। उन्होंने कहा कि जब सभी पार्टियों में सहमति हो गई है, तो केन्द्रीय एसेंबली में किन पार्टियों के सदस्यो की संख्या कितनी है, यह मायने नहीं रखता।

उन्होंने बताया कि प्रस्तावित संविधान पहचान के पांच सिद्धांतों और क्षमता के 4 सिद्धांतों पर आधारित है। यह एक सघीय संविधान होगा। भट्टराई को ही संविधान के लेखन का जिम्मा दिया गया था। उन्हें कहा गया था कि जहां कहीं भी मतभेद हो, वहां वे खुद अपने दिमाग और विवेक का इस्तेमाल करें और मतभेदों को सुलझाने की कोशिश करें। भट्टराई की एक विशेषता यह है कि वे भारत विरोध की रट नहीं लगाते, जैसा कि अन्य कुछ नेपाली नेताओं की आदत है। इसका एक कारण भट्टराई की भारत में हुई पढ़ाई है। वे जेएनयू के छात्र थे और वहां ये उन्होंने पीएचडी किया था। (संवाद)