ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद से हटने के बावजूद राज्य में उनका महत्व बना रहा। जब कभी भी पार्टी के सामने कोई समस्या आती थी, लोग सलाह के लिए श्री बसु के पास ही जाते थे। जब पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का आंदोलन अपने शिखर पर था, उस समय भी पार्टी नेताओं को श्री बसु की ही याद आई थी। आज राज्य में पार्टी का पतन हो रहा है, वैसे समय में उनका इस दूनिया से चला जाना पार्टी के लिए कोई बड़े सदमे से कम नहीं है। हालांकि यह भी सच है कि बसु के रहने से पार्टी का पतन रुक जाता वसकी कोई गारंटी नहीं थी।

यह सच है कि पार्टी जिस तरह से अपना जनाधार खो रही है, उसमें बसु के कारण शायद कोई विराम नहीं आता, लेकिन यह भी सच है कि पतन के कारण पैदा हो रही समस्याओं के हल के लिए ज्योति बसु की उपस्थिति पार्टी के लिए बहुत काम आती। पार्टी के सामने अब जो समस्याएं आएंगी, उनका हल मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य और लेफ्ट फ्रंट के चेयरमैन बिमान बोस को ही निकालना होगा, लेकिन उनकी समस्या यह है कि बड़े पदों पर होने के बावजूद उनका राजनैतिक कद बहुत ऊंचा नहीं है और पार्टी के अंदर वे दूसरी पंक्ति के ही नेता हैं।

इसके अलावा मुख्यमंत्री भट्टाचार्या ने जिस तरह से नंदीग्राम और सिंगूर के मसले को उलझाया, उससे उनकी छवि एक विफल नेता की ही बनी है। वे पार्टी कार्यकत्र्ताओं के लिए प्रेरणा के स्रोत नहीं बन सकते। उनके नेत्त्व में पार्टी के अच्छे भविष्य के बारे में शायद ही कोई आश्वस्त हो सकता है। बिमान बोस की हालत भी ऐसी ही है। अनिल बिश्वास के बाद उन्होंने बहुत ही झिझकते हुए यह पद स्वीकार किया था। उनके पास अनिल बिश्वास जैसी कार्यकुशलता और अपनी बात और से मनवाने वाली क्षमता का अभाव है।

अब जब पार्टी कमजोर हो रही है, तो वाम मोर्चे के अन्य घटक दल सीपीएम के ऊपर हावी होना चाहेंगे। सच तो यह है कि उन्होंने हावी होने की कोशिश शुरू भी कर दी है। वैसी हालत में मुख्यमंत्री और बिमान बोस के सामने उनसे नई परिस्थितियों में तालमेल बनाए रखने की चुनौती आ गई है। चुनाव के समय घटक दलों के बीच सीटों का बंटवारा एक बड़ा मुद्दा होता है। ज्याति बसू की अनुपस्थिति उस समय बेहद ही खलेगी।

एक और समस्या सामने आएगी। राज्य की पार्टी इकाई के साथ केन्द्रीय नेताओं का संबंध तनावपूर्ण चल रहा है। प्रकाश करात और मुख्यमंत्री के बीच मतभेद है। ज्योति बसु के कारण इन मतभेदों के बावजूद मामला अपने हद में दबा हुआ रहता था, लेकिन उनके न रहने का असर राज्य इकाई के साथ केन्द्रीय नेताओं के टकराव अप्रिय मोड़ भी ले सकते हैं। (संवाद)