लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने भाषणों से लोगों की उम्मीदों को बहुत ही ज्यादा बढ़ा दिया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि हमारा देश पिछले दो- एक सालों से गंभीर संकट का सामना करना कर रहा है और संकट के इस दौर में नरेन्द्र मोदी उन्हें एक बहुत बड़े संकट मोचक के रूप में दिखाई दे रहे थे। श्री मोदी के प्रति वैसी धारणा के कारण ही देश की जनता ने उनका अभूतपूर्व समर्थन किया।

और अब बारी नरेन्द्र मोदी की है। संकट चौतरफा है, लेकिन यह सब ज्यादा और चुनौतीपूर्ण आर्थिक मोर्चे पर ही है। क्या उन चुनौतियों पर सरकार ख0रा उतरेगी या एक बार फिर लोगों को नाउम्मीदी का सामना करना पड़ेगा? केन्द्र सरकार दावा कर सकती है कि महंगाई के मोर्चे पर उसने लोगों को निराश नहीं किया है। थोक मूल्य सूचकांकों के आधार पर मुद्रास्फीति की दर शून्य की ओर आती दिखाइ्र्र दे रही है, तो उपभोक्ता मूल्य सूचकांको के आधार पर तैयार मुद्रास्फीति की दर पहले की अपेक्षा बहुत कम हो गई है।

लेकिन विकास की दर अभी भी असंतोषजनक बनी हुई है। विकास दर मुश्किल से 5 फीसदी है, जो किसी भी दृष्टिकोण से संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। रोजगार अवसर बढ़ाने और राजस्व वसूली को बेहतर बनाने के लिए विकास दर का बेहतर होना जरूरी है। लिहाजा अगले साल का सबसे महत्वपर्ण आर्थिक एजेंडा विकास दर में वृद्धि ही होगी। यह आर्थिक ही नहीं, बल्कि मोदी सरकार का सबसे बड़ा राजनैतिक एजेंडा भी होगा, क्योंकि विकास के मुद्दे पर ही यह सरकार बनी है।

विकास को तेज करने के के लिए केन्द्र सरकार को एक से बढ़कर एक नीतिगत फैसले करने होंगे। वामपंथियों के दबाव से मुक्त होने के बाद भी मनमोहन सरकार आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के अगले दौर को लागू नहीं कर सकी थी, क्योंकि वह लगाातर राजनैतिक संकट के दौर से गुजरती रही थी। नरेन्द्र मोदी सरकार के पास बहुमत है और प्रधानमंत्री के पास लोगों से संवाद कर उन्हें संयमित करने का गुण भी है, इसलिए उम्मीद तो यही की जानी चाहिए कि सरकार उन नीतियों को लागू करने में सक्षम हो पाएगी, जो अर्थव्यवस्था के तेज विकास के लिए जरूरी है।

प्रधानमंत्री ने ’’मेक इन इंडिया’’ के नाम से एक बहुत ही महत्वाकांक्षी सपना पाल रखा है, जिसके तहत वे दुनिया भर के उत्पादकों को भारत में अपनी अपनी उत्पादक ईकाइयां स्थापित करने की सोच है। वैसा संभव होने के लिए देश का नीतिगत माहौल माकूल करना होगा। ईकाइयों को स्थापित करने के लिए जमीन चाहिए और जमीन के लिए अबतक खेती की जमीन की ओर देखा जाता रहा है। पिछली सरकार ने एक ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून बना दिया है, जिसके कारण औद्योगिा ईकाइयों को जमीन पाना बहुत ही कठिन हो गया है। मोदी सरकार उसे बदलने की कोशिश भी कर रही है और इसके लिए अध्यादेश का रास्ता अख्तियार कर रही है, लेकिन इससे संबंधित कानून पास कराना सरकार के लिए बेहद ही कठिन होगा। राज्यसभा में उसके पास बहुमत नहीं है और विरोध संसद में ही नहीं, बल्कि बाहर भी हो सकता है। सरकार की स्मार्ट सीटी योजना को भी भूमि अधिग्रहण टेस्ट में पास होना होगा।

सरकार को अनेक किस्म के प्रशासनिक सुधार भी करने होंगे, ताकि प्रशासनिक लाल फीताशाही का शिकार विकास की योजनाओं को नहीं होना पड़ा। हमारे देश की विडंबना है कि बिना प्रशासनिक सुधार के ही हमारे नीति निर्माता आर्थिक सुधार कार्यक्रमों में लगे हुए हैं, जिनके कारण देश में भारी भ्रष्टाचार फैल गया है।

2015 की एक बड़ी आर्थिक चुनौती कराधान के मोर्चे पर भी है। प्रत्यक्ष कर संहिता यानी डायरेक्ट टैक्स कोड (डीटीसी) को इनकम टैक्स एक्ट का स्थान लेना है। यह मामला बहुत साल से लटका हुआ है। काले धन की समस्या से निजात पाने के लिए इसका बेसब्री से इंतजार किया जा रहा है। इससे भी ज्यादा चुनौतीपूर्ण गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) है। वाजपेयी सरकार के समय ही इसकी अवधारणा पेश की गई थी, लेकिन राज्यों के विरोध के कारण यह मामला भी लटका पड़ा है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने इसपर आमसहमति के प्रयास किए हैं और उसमें सफलता भी मिलती दिखाई पड़ रही है। यदि डीटीसी पर स्पष्टता और जीएसटी पर सर्वसम्मति 2015 में हो जाती है, तो निश्चय ही हमारे देश के राजकोषीय इतिहास का यह एक ऐतिहासिक साल बन जाएगा।

देश का कार्पोरेट सेक्टर भारतीय रिजर्व बैंक की ओर नजर गड़ाए हुए है कि मुद्रास्फीति दर में गिरावट के साथ ही ब्याज दरों में भी कमी हो, लेकिन उसके गवर्नर अभी भी मुद्रानीति के साथ परीक्षण करने के मूड में नहीं हैं। मुद्रास्फीति में गिरावट का एक कारण मुद्रानीति का कठोर होना भी है और लगता है कि भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन आर्थिक विकास के ऊपर महंगाई पर नियंत्रण को तरजीह दे रहे हैं, लेकिन उनके उस रुख के कारण काॅर्पोरेट सेक्टर में बेचैनी व्याप्त है। वर्ष 2015 का एक महत्वपूर्ण आर्थिक एजेंडा वित्त मंत्री द्वारा तैयार राजकोषीय नीतियों से भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा घोषित मुद्रानीति के बीच तालमेल बैठाने की भी होगी। 2.014 के अंत में तो देखा जा रहा है कि श्री राजन अपने आर्थिक दशन पर अड़े हैं, तो वित्त मंत्री जेटली का आर्थिक दर्शन कुछ ओर ही है।

सब्सिडियों को लेकर भी केन्द्र सरकार को नीतिगत बदलाव लाने होंगे। पेट्रोल और डीजल को तो सब्सिडी मुक्त कर ही दिया गया है। रसोई गैस को पूरी तरह सब्सिडी मुक्त करना फिलहाल संभव नहीं है, लेकिन उर्वरक सब्सिडी को ज्यादा विवेकसम्मत बनाए जाने की आवश्यकता बहुत समय से महसूस की जा रही है। क्या केन्द्र सरकार सब्सिडी सीधे किसानों को देने की योजना को लागू कर पाएगी? 2015 का यह एक महत्वपूर्ण सवाल होगा।

कल्याणकारी कार्यक्रमों के लिए जारी किए गए धन की भारी लूट होती है। इसके कारण एक तरफ तो भ्रष्टाचार बढ़ता है और दूसरी तरह कल्याण के उद्देश्य पराजित हो जाते हैं। आधार कार्ड के इस्तेमाल के द्वारा भ्रष्टाचार को रोकने और कल्याण कोष को सही लोगों तक पहुंचाने का एक प्रस्ताव सरकार के पास रहा है, हालांकि उस पर अनेक लोग संदेह व्यक्त करते हैं। न्यूनतक सरकार के साथ अधिकतम शासन का वायदा करने वाली मोदी सरकार की आर्थिक चुनौतियों में एक बड़ी चुनौती कल्याणकारी कार्यक्रमों को भ्रष्ट प्रशासन से मुक्त करने की होगी। (संवाद)