उस उत्सव के बाद मोदी सरकार को देश की कठिन चुनौतियों से जूझने का काम करना होगा। सबसे कठिन चुनौती तो आगामी फरवरी महीने में पेश किए जाने वाले बजट के निर्माण की ही है। इसके एक लैंडमार्क बजट होने की उम्मीद की जा रही है। इस बजट पर हमारे देश के लोगो की नजर ही नहीं है, बल्कि दुनिया के अनेक देशों की नजर भी है। वे देखना चाहते हैं कि भारत को बदलने का जो सपना प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देख रहे हैं, उस सपने की दिशा क्या है। देश के लोगों की दिलचस्पी यह देखने में है कि यह विकास को कैसे तेजी प्रदान करता है और रोजगार के अवसर पैदा करने में क्या भूमिका अदा करने वाला है।

वित्तमंत्री अरुण नेहरू ने जो संकेत दिए हैं, उनसे तो यही लगता है कि कुछ संरचनागत बदलाव भी होने वाले हैं। व्यापार के माहौल को और भी बेहतर बनाने का काम किया जाएगा और इसके लिए कुछ और बंदिशों व नियंत्रणों को कमजोर किया जाएगा या समाप्त ही कर दिया जाएगा। निवेशकों के लिए बेहतर राजकोषीय माहौल तैयार होने की भी संभावना है। टैक्स व्यवस्था में स्थायित्व लाने की कोशिश की जाएगी। इन्फ्रास्ट्रक्चर में सरकारी निवेश की भी घोषणा की जा सकती है। वित्त मंत्री के सामने सफल वित्तीय प्रबंधन की जबर्दस्त चुनौती मौजूद है।

वित्त मंत्री बजट बनाने के पहले लोगों से बातचीत और विचार विमर्श भी कर रहे हैं। विचार विमर्श से जो बात छनकर आ रही हैं, उनसे यही लगता है कि निजीकरण की रफ्तार को और भी तेज किया जाएगा। मोदी सरकार का मूल मंत्र है कि ज्यादा प्रशासन और कम प्रशासक। इसे ध्यान में रखकर ही बजट तैयार किया जा रहा है।

लेकिन इस समय देश में और विदेशों मे भी चिंता की जो बातें महसूस की जा रही हैं, वे यह है कि सरकार अध्यादेशों पर ज्यादा से ज्यादा निर्भर हो रही हैं। कानून बनाने की जो नियमित प्रक्रिया है, उसके तहत विधेयक संसद में पेश किया जाता है। विधेयक एक प्रक्रिया के बाद वोटिंग के लिए बारी बारी से दोनों सदनों में लाया जाता है। पारित होने के बाद उसे राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के लिए भेजा जाता है। हस्ताक्षर के बाद ही विधेयक अधिनियन यानी कानून का रुतबा हासिल करता है।

संविधान में अध्यादेश की व्यवस्था भी की गई है। यदि संसद का सत्र नहीं चल रहा हो और किसी कानून का तत्काल निर्माण अति आवश्यक हो, तो मंत्रिमंडल अध्यादेश तैयार कर उसे राष्ट्रपति के दस्तखत के लिए भेज देता है। राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद वह अध्यादेश कानून का रूप ले लेता है।

संसद का सत्र शुरू होने के बाद अध्यादेश को वहां से पारित करवाने की भी व्यवस्था है। यदि संसद का सत्र शुरू होने के बाद 6 सप्ताह समाप्त हो जाए अथवा उस सत्र का समापन ही 6 सप्ताह के पहले हो जाए, तब अध्यादेश कानून के रूप में अपना अस्तित्व खो देता है। और यदि सरकार चाहे, तो सत्र समाप्त होने के बाद एक बार फिर अध्यादेश लागू करे। लेकिन ऐसा अतिशय असामान्य स्थितियों मंे ही किया जाना चाहिए।

पर मोदी सरकार ने सामान्य स्थितियों मे भी अध्यादेश का रास्ता अख्तियार कर रखा है, जिसे उचित नहीं माना जा सकता, क्योकि यह संसद को दरकिनार करके किया जाता है। देश और दुनिया की चिंता इसी बात को लेकर है। इसलिए आने वाले समय में मोदी सरकार की परीक्षा इस बात को लेकर भी होगी कि वह कितनी राजनैतिक कुशलता से अध्यादेश की शरण में जाए बिना ही कानून का निर्माण करे ओर अपनी परिर्तनकारी नीतियों को आगे बढ़ाए। (सवाद)