पिछला सत्र समाप्त होने पर केन्द्र सरकार ने अनेक कानून अध्यादेशों के मार्फत से बना डाले थे। संवैधानिक बाध्यता के कारण उन अध्यादेशों को संसद से 6 सप्ताह के भीतर पारित कराना होगा, अन्यथा वे निष्प्रभावी हो जाएंगे। जाहिर है कि इस सत्र में बजट के साथ साथ अन्य आर्थिक कानूनों पर भी राजनैतिक घमासान होंगे और राज्यसभा में केन्द्र सरकार का अल्पमत विपक्ष को उस पर हावी होने का मौका प्रदान करता रहेगा। भूमि अधिग्रहण कानूना सबसे ज्यादा ताप पैदा कर सकता है, क्योंकि अन्ना हजारे ने किसानों से जुड़े इस मसले पर आंदोलन शुरू कर दिया है। लिहाजा संसद से बाहर की राजनैतिक गर्मियां भी सदन के माहौल को गर्म रखने का काम करेगी और लोकसभा मे आरामदायी बहुमत के बावजूद केन्द्र सरकार को पसीने छूट सकते हैं।

दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की करारी शिकस्त का असर आगामी बजट पर भी पड़ सकता है। सत्ता में आने के बाद एक जनधन योजना को छोड़कर सरकार की अधिकांश घोषणाएं कार्पोरेट सेक्टर और बड़े व्यावसायिक घराने को लाभ पहुंचाने से ही संबंधित थीं। इसके कारण सरकार की छवि अमीर लोगों की चिंता करने वाली बन रही थी। दिल्ली के चुनाव मे इसका खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा है। इसलिए सामान्य समझ तो यह कहता है कि सरकार अपनी बन रही इस छवि को तोड़ने का प्रयास करेगी और एक संतुलित बजट पेश करने की कोशिश करेगी, पर दिल्ली चुनाव की हार के बाद वित्तमंत्री अरुण जेटली ने बयान दे डाला था कि उसके नतीजे से केन्द्र सरकार का सुधार एजेंडा प्रभावित नहीं होगी। इससे संदेश यही जा रहा है कि कम से कम इस बजट मे सरकार अपना कथित सुधार एजेंडा, जो तात्कालिक रूप से गरीब विरोधी और अमीरों का पक्ष लेती दिखाई देती है, लागू करेगी।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की गिरती कीमतों ने वित्तमंत्री का काम आसान कर दिया है। तेल बिल में कमी आई है और इसके कारण राजकोषीय घाटा बेलगाम नही हो पाया है, अन्यथा राजस्व उगाही के मोर्चे पर आ रही कठिनाइयां सरकार के बजट को गड़बड़ा देती। शेयर बाजार के ऊंचे सूचकांक और इस माहौल में कुछ सरकारी कंपनियो के शेयरों की बिक्री से हुई आमदनी ने भी राजकोष को कुछ सुदृढ़ बनाया है। तेल की कीमतों के आई गिरावट ने थोक मूल्य सूचकांकों के आधार पर तैयार मुद्रास्फीति की दर को भी कम कर डाला है। इसके कारण विता मंत्री कीमतों के मोर्चे पर अपनी बजट तैयारी में संघर्ष करते हुए नहीं दिखाई दे रहे हैं। लेकिन उपभोग की आवश्यक वस्तुओं में की कीमतों में हो रही वृद्धि को ध्यान मे ंरखा जाना जरूरी है।

हमारे देश में आर्थिक सुधार कार्यक्रमों के शुरू होने के साथ ही कर व्यवस्था मे सरलता लाने के प्रयास चल रहे हैं। आय कर जमा करने के फाॅर्म तक का नाम ’’सरल’’ रख दिया गया था। इस सबके बावजूद कर प्रशासन मे सरलता अभी भी दूर की कौडी है। प्रत्यक्ष कर व्यवस्था के लिए डायरेक्ट टैक्स कोड (डीटीसी) और अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था के लिए गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स (जीएसटी) के प्रावधानों को लाने की बात बहुत सालो से चल रही है, लेकिन उनके अमल का इंतजार अभी समाप्त नहीं हो रहा है। डीटीसी से संबंधित कोई बडी घोषणा अपने बजट भाषण में वित्तमंत्री कर सकते हैं।

मेक इन इंडिया एक बहुत ही महत्वाकांक्षी योजना है, जिसके तहत मोदी सरकार भारत को वैश्विक उत्पादन का एक बड़ा केन्द्र बनाना चाहती है, लेकिन यह तभी संभव है, जब यहां का उत्पादन लागत कम हो। सस्ता श्रम लागत कम करने का एक फैक्टर हो सकता है, लेकिन अन्य अनेक फैक्टर हमारे देश में उत्पादन लागत को महंगा करने का काम करते हैं और उसमे सबसे बड़ा फैक्टर भ्रष्टाचार है। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने एक ईमानदार स्वीकारोक्ति की थी नई आर्थिक नीतियों के कारण भ्रष्टाचार बढ़ गए। बजट सरकार की आर्थिक नीतियों का दस्तावेज होता है। अनेक नीतियों मे भ्रष्टाचार के बीज पाए जाते हैं। सवाल उठता है कि क्या भ्रष्टाचार को नीति के स्तर पर ही समाप्त करने की कोशिश इस बजट मे सरकार कर पाएगी?

भूमि अधिग्रहण कानून सरकार के लिए सबसे ज्यादा मुसीबत का कारण है। यदि आप औद्योगिक उत्पादन को बढ़ाना चाहते हैं और दुनिया भर के उत्पादकों को अपने यहां आमंत्रित कर रहे हैं, तो उन्हें उद्योग की स्थापना के जमीन भी देनी होगी, लेकिन पिछली सरकार ने एक ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून बना दिया है, जिससे उद्यमियों को जमीन मिलना अत्यंत ही कठिन हो गया। मोदी की स्मार्ट सिटी परियोजना भी जमीन अधिग्रहण कानून के कारण बहुत आगे बढ़ती नहीं दिखाई देती। कानून को बदलने के लिए जो अध्यादेश जारी किया गया है, उससे देश की ग्रामीण शांति भी भंग हो सकती है। जाहिर है, उस ओर सरकार को अपने कदम फूंक फूक कर बढ़ाने होगे। प्राप्त सकेतों के अनुसार सरकार बीच का रास्ता अपनाना चाह रही है। वह बीच का रास्ता क्या है, इसका पता इस बजट सत्र में लग जाएगा।

अच्छे दिन लाने के वायदे के साथ मोदी सरकार ने सत्ता पाई है। इस बजट में हमारे देश के लोग अच्छे दिनों की तलाश करते देखे जाएंगे। अलग अलग तबको के लिए अच्छे दिनों की परिभाषा भी अलग अलग है। एक का अच्छा दिन, दूसरों के खराब दिनो का कारण हो सकता है। बजट के द्वारा एक साथ सबको खुश कर देना एक असंभव काम है। देखना दिलचस्प होगा कि मोदी सरकार का अगला बजट किसके लिए अच्छे दिनों का पैगाम लेकर आता है। (संवाद)