इस संघर्ष के नतीजे सामने आने वाले हैं। संघर्ष में चाहे जिसकी जीत हो, लेकिन इसके बाद भारी बदलाव देखने को मिलेगा। एक बात तो तय है कि इस संघर्ष में एक पक्ष को हारना ही होगा और जो पक्ष हारेगा, वह अपमान की घूंट पीकर संघर्ष से बाहर हो जाएगा।

दरअसल पिछले लोकसभा चुनाव ने दोनों पार्टियों में इस तरह के संघर्ष को बढ़ावा दिया है। चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत हो गई थी। और वह कोई साधारण जीत नहीं थी। पहली बार उसे लोकसभा में पूर्ण बहुमत हासिल हो गया और अपने सहयोगियों के साथ 60 फीसदी से भी ज्यादा सीटें उसकी झोली में आ गई थी। उसके बाद नरेन्द्र मोदी का सितारा बुलंदी पर चला गया। और फिर शुरू हो गया आरएसएस के साथ उनके वर्चस्व की लड़ाई।

कांग्रेस पर उस चुनाव के नतीजे का तो बहुत ज्यादा असर पड़ रहा है। 360 साल पुरानी कांग्रेस पार्टी ने अपने इतिहास की सबसे बड़ी पराजय देखी। उसकी कुल सीटें 44 तक सिमट गईं। कांग्रेस कोई पहली बार चुनाव नहीं हारी थी। इसके पहले भी उसने चुनावों में शिकस्त खाई थी और फिर उसने वापसी भी की थी। लेकिन इस बार का चुनाव परिणाम पहले वाली हारों से बिल्कुल अलग था और इसे किसी भी कोण से हार और जीत के सामान्य चक्र के रूप में नहीं देखा जा सकता।

जो कांग्रेसी यह कह रहे हैं कि पार्टी के सामने हार जीत लगी ही रहती है, वे खुद को धोखे में रख रहे हैं, क्योंकि पिछले साल लोकसभा चुनावों में पार्टी को मिली हार, कोई साधारण हार नहीं थी। उसके बाद तो पार्टी के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान खड़े हो रहे हैं। लोकसभा चुनाव के बाद तो विधानसभाओं के चुनाव हुए हैं, उनके संकेत भी यही हैं कि पार्टी के सामने निश्चित रूप से अस्तित्व का सवाल खड़ा हो गया है, जिसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। दिल्ली विधानसभा के चुनाव मे कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। ऐसा कभी सोचा भी नहीं जा सकता था, क्योंकि कांग्रेस 1998 से 2913 तक लगातार सत्ता में रही थी। उसके तुरंत बाद ही देश की राजधानी में कांग्रेस का शून्य हो जाना कोई छोटी बात नहीं है।

लेकिन कांग्रेस ने उन हारों की सही समीक्षा तक नहीं की है। लोकसभा चुनाव के बाद ए के एंटोनी के नेतृत्व में एक समिति उस हार के कारणों की जांच करने के लिए बनी थी। उसकी रिपोर्ट तो सामने नहीं आई है, लेकिन एंटोनी ने जो कुछ सार्वजनिक रूप से कहा है, उससे यही लगता है कि सोनिया और राहुल को उन्होंने अपनी रिपोर्ट में क्लीन चिट दे डाला है। एंटोनी जैसे भक्त अपने प्रभु के खिलाफ कुछ लिख ही नहीं सकते थे। उनसे ज्यादा उम्मीद की ही नहीं जा सकती थी। लेकिन इससे कांग्रेस के पतन की दास्तां समाप्त नहीं हो जाती।

संसद सत्र के दौरान ही छुट्टी पर जाकर राहुल गांधी ने एक नया बवाल खड़ा कर दिया है। उनकी यह छुट्टी साधारण अवकाश नहीं है। हो सकता है कि वे कांग्रेस की दुर्दशा के बारे में विचार करने के लिए देश से बाहर चले गए हों और हो सकता है कि कोई और कारण भी रहे हों, लेकिन इतना तो साफ देखा जा सकता है कि वे कांग्रेस नेतृत्व को लेकर आरपार करने के मूड में हैं। वे पार्टी पर पूर्ण नियंत्रण चाहते हैं और पार्टी को पुराने कांग्रेसियों से छुटकारा दिलाना चाहते हैं।

जाहिर है, राहुल का कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में राज्यारोहन खुद कांग्रेस के लिए कोई साधारण घटना नहीं होगी। अनेक वरिष्ठ कांग्रेसी नेता संन्यास लेने को अभिशप्त हो सकते हैं अथवा किसी और भी पार्टी में अपना आश्रय तलाश सकते हैं। खुद सोनिया गांधी राहुल के कार्यक्रमों और रणनीतियों से इत्तिफाक नहीं रखती। इसलिए वह भी राहुल को लेकर झिझक रही हैं।

लेकिन अब मां और बेटे के बीच आरपार की लड़ाई चल रही है। इस लड़ाई में किसी एक को हारना ही होगा। (संवाद)