नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस एक साथ मिलकर पीडीपी की सरकार को स्थायित्व दे सकते थे। शुरू शुरू में नेशनल कान्फ्रेंस ने कुछ ऐसा संकेत भी दिया था कि यदि पीडीपी फोन करके भी उससे समर्थन मांगे, तो वह देने के लिए तैयार है। लेकिन ऐसा कर नेशनल कान्फ्रेंस सिर्फ भाजपा और पीडीपी गठबंधन सरकार को रोकने की राजनीति कर रहा था और यह वहां की जनता को संदेश देना चाहता था कि उसके समर्थन के बावजूद पीडीपी ने भाजपा के साथ सरकार बनाई। जाहिर है, नेशनल कान्फ्रेंस का पीडीपी को दिया जा रहा कथित समर्थन सिर्फ जुबानी जमा खर्च था।

पिछले चुनाव के पहले जम्मू और कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस की मिलीजुली सरकार थी। उन दोनों पार्टियों को जनता ने पराजित कर दिया था। पराजित पार्टियों के समर्थन से सरकार बनाना अपने आप में जनादेश का उल्लंघन होता। इसके अलावा राज्य सरकार को केन्द्र से भी बेहतर रिश्ते बनाकर रखने होते हैं। भारतीय जनता पार्टी जिस तरह से प्रतिक्रिया कर रही थी, उससे यही लग रहा था कि पीडीपी-कांग्रेस-नेशनल कान्फ्रेंस का गठबंधन उसे रास नहीं है। जाहिर है कि केन्द्र से मिलने वाली मनचाही सहायता से जम्मू और कश्मीर की जनता वंचित रह सकती थी।

तीसरा कारण यह हो सकता है कि पीडीपी के लिए प्रदेश में मुख्य चुनौती नेशनल कान्फ्रेंस से ही मिलती है। मोदी लहर के कारण भाजपा को उस चुनाव में अच्छी सीटें तो मिल गई थीं, लेकिन लहर हमेशा नहीं रहती। इसलिए पीडीपी के नेताओं ने सोचा होगा कि इस बार तो भले ही भाजपा ने अच्छी सीटें हासिल कर ली हैं, लेकिन बाद में तो उसे नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस से ही जूझना है। और जिनके साथ आने वाले दिनों मंे भी राजनैतिक प्रतिस्पर्धा होनी है, उसके साथ मिलकर सरकार चलाना आगे की प्रतिस्पर्धा में अपने को कमजोर करने जैसा ही होता।

लिहाजा, पीडीपी ने भाजपा के साथ मिलकर ही सरकार बनाना उचित समझा। भारतीय जनता पार्टी की छवि एक मुस्लिम विरोधी पार्टी की है और इसके कारण उसे मुस्लिम वोट नहीं मिलते। जम्मू और कश्मीर भी इसका अपवाद नहीं है, जहां उसे हिन्दू बहुल जम्मू में ही सीटें मिलीं, जबकि कश्मीर घाटी में उसे शून्य से संतोष करना पड़ा। वहां उसे मिले मतों का प्रतिशत भी काफी कम है। मुस्लिम वोटों की राजनीति करने वाली पार्टी के लिए भाजपा के साथ जुड़ना बहुत ही खतरे भरा निर्णय होता है। उस पार्टी के खिलाफ भी मुसलमानों के हो जाने का खतरा रहता है। इसलिए भाजपा का समर्थन लेकर पीडीपी ने निश्चय ही एक बड़ा खतरा मोल लिया है।

खतरा तो भाजपा ने भी उठाया है। भाजपा की जम्मू और कश्मीर में धारा 370 को समाप्त करने की मांग करती रहती है। केन्द्र में सत्ता मे आने के बाद उसकी कोशिश उसे समाप्त करने की होनी चाहिए, लेकिन पीडीपी जैसी धारा 370 की समर्थक पार्टी से मिलकर उस धारा को समाप्त करने का उसका संकल्प कमजोर हो जाता है। घाटी में आतंकवाद को लेकर भी भाजपा और पीडीपी के बीच समान राय नहीं है। कश्मीर समस्या में पाकिस्तान की भूमिका को लेकर भी दोनों दलों में अलग अलग विचार हैं।

और यदि भारतीय जनता पार्टी धारा 370, कश्मीर में आतंकवाद और पाकिस्तान पर अपन रुख में बदलाव करती है, तो उसे देश भर में चुनावी नुकसान उठाना पड़ सकता है, क्योंकि उसके समर्थकों की एक बड़ी संख्या उससे नाराज हो जाएगी। सच कहा जाय, तो भाजपा के साथ पीडीपी का हाथ मिलाना उसके लिए जितना जोखिमपूर्ण काम है, उससे ज्यादा जोखिमपूर्ण काम भाजपा के लिए पीडीपी से हाथ मिलाना है।

दोनों पार्टियों का गठबंधन सत्ता के लिए सुविधा का गठबंधन है। एक स्तर पर यह एक नाजायज गठबंधन भी है, लेकिन इस तरह के नाजायज गठबंधन हमारे देश में पहले भी बहुत हुए हैं और आगे भी होते रहेंगे।

पीडीपी और भारतीय जनता पार्टी सत्ता में भागीदारी के साथ साथ अपनी अपनी राजनीति भी चलाती रहेगी और कोशिश करती रहेगी कि एक दूसरे के साथ मिलने से दोनों के अपने अपने समर्थकों मंे निराशा का भाव नहीं आए। यही कारण है कि मुख्यमंत्री बनते के साथ ही मुफ्ती ने पाकिस्तान और आतंकवादियों के समर्थन में बयान दे डाले। उन्होंने कश्मीर के चुनाव में हुए भारी मतदान के लिए पाकिस्तान और आतंकवादियों को श्रेय दे डाला, जो भाजपा को कतई मंजूर नहीं। भाजपा ने उससे असहमति भी जता दी। फिर पीडीपी विधायकों ने संसद हमले के आरोपी कश्मीरी अफजल गुरू के शव की मांग कर दी, जिसे फांसी के बाद तिहाड़ जेल में ही दफना दिया गया है। भारतीय जनता पार्टी को यह मांग गबारा नहीं है और वह इस तरह की मांग के नतीजे गंभीर होने की चेतावनी दे रही है। नतीजे गंभीर होने का मलतब मुफ्ती सरकार का पतन के अलावा और कुछ भी नहीं है।

दोनों पार्टियों के बीच में रस्साकसी चलती रहेगी और सरकार भी चलती रहेगी, इसकी संभावना बहुत ज्यादा है। ये बेमेल विवाह है, लेकिन इसका नतीजा अच्छा ही होगा। इसके कारण हमारा देश अतिवाद की राजनीति की ओर खिसकने से बच सकेगा। इस तरह के गठबंधन का कश्मीर के लोगों पर भी असर पड़ेगा और वे यह देख सकेंगे कि उनके बीच अतिवादी बातें करने वाले नेता सत्ता के लिए किस तरह अपने उसूलों के साथ समझौता करते हैं। भारतीय जनता पार्टी के अतिवादी समर्थकों के अतिवाद पर भी इस गठबंघन से लगाम सकता है। इसलिए यह प्रयोग हमारे देश की राजनीति के लिए अच्छा ही है। (संवाद)