अरविंद केजरीवाल खुद अपनी आभा खो चुके हैं। अपनी उस आभा के कारण ही वे दिल्ली विधानसभा के चुनाव में भारी विजय हासिल कर सके थे। अब उनकी छवि एक ऐसे नेता की बनी है, जो अपनी पार्टी के अंदर के विरोध को शांत नहीं कर सकते और सबको अपने साथ लेकर नहीं चल सकते।

विपक्षी कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी आम आदमी पार्टी के अंदर चल रहे तमाशे को ध्यान से देख रही है। वह उस तमाशे को देखकर खुश भी हो रही है। केजरीवाल ने ’’ पांच साल केजरीवाल’’ के नारे के साथ दिल्ली का चुनाव जीता था। लेकिन वे जीत को पांच महीने तक भी पचा नहीं सके।

आम आदमी पार्टी का प्रयोग एक अच्छी दिशा में आगे बढ़ रहा था। पर अब यह एक खराब सपना बनकर रह गया है। पार्टी विभाजन की ओर बढ़ रही है। किसे पता था कि जिस पार्टी ने दिल्ली में ऐतिहासिक जीत दर्ज की है, वह इस तरह की दशा को कुछ सप्ताह में ही प्राप्त कर लेगी।

दिल्ली के लोगों ने भ्रष्टाचार मुक्त शासन के लिए केजरीवाल की सरकार को मत दिया था, लेकिन भ्रष्टाचार मिटाने की जगह सरकारी दल अपने की झगड़ों में उलझ कर रह गई है। इसके कारण दिल्ली की जनता भी अपने को ठगी महसूस कर रही है।

इसमें कोई मत नहीं कि अरविंद केजरीवाल एक करिश्माई नेता हैं, जो मतदाताओं को अपनी ओर खींचने में सफल थे। करश्मिाई व्यक्तित्व की कसौटी पर प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव उनके सामने कहीं खड़े नहीं दिखाई देते, लेकिन पार्टी के विकास और प्रसार में उन दोनो की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

समस्या यह है कि सत्ता संघर्ष बहुत जल्दी शुरू हो गया। केजरीवाल के विरोधी दोनों नेताओं मे इतन माद्दा नहीं है कि मतदाताओं को आकर्षित करने में वे दिल्ली के मुख्यमंत्री की बराबरी कर सकें। उनमें भाषण देने की वह कला भी नहीं है और वे बेहतर रणनीतिकार भी नहीं हैं। यदि वे अलग पार्टी बना भी लेते हैं, तो उनके सफल होने की संभावना बहुत ही कम है।

सवाल उठता है कि पार्टी से गलती कहां हुई? सबसे पहले तो केजरीवाल ने एक चैकड़ी संस्कृति बनानी शुरू कर दी थी और वह चैकड़ी भूषण और यादव को पसंद नहीं कर रही थी। दिल्ली चुनाव के पहले ही उस चैकड़ी के कारण शाजिया इल्मी ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। बाद में मेधा पाटकर और दमानिया ने भी इस्तीफा दे दिया। अब जब भूषण, यादव और रामदास किनारे कर दिए गए हैं, तो केजरीवाल की आलोचना हो रही है।

चैकड़ी ने केजरीवाल के इर्द गिर्द एक पर्सनैलिटी कल्ट बनाना शुरू कर दिया था और वे सारा नियंत्रण केजरीवाल के जिम्मे देखना चाहते थे। केजरीवाल को भी यह पसंद आ रहा था। अंदर के लोगों का कहना है कि दिल्ली चुनाव के नतीजे आने के पहले ही केजरीवाल अपने आपको पार्टी से भी ऊपर समझने लगे थे।

इसके कारण पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को समस्या होने लगी। वे केजरीवाल के सामने अपने आपको जूनियर नेता के रूप में पेश करने को तैयार नहीं थे।

आम आदमी पार्टी के सामने एक समस्या यह भी कि वह अपने अंदर की अनुशासनहीनता को बर्दाश्त करने की क्षमता नहीं रखती थी और उसका सामना कैसे किया जाय, इसके बारे में भी उसके पास कोई अनुभव नहीं था। किसी भी पार्टी के अंदर गुटबाजी, असंतोष और थोड़ी अनुशासनहीनता स्वाभाविक रूप से होती है और पार्टी उसे बर्दाश्त करते हुए आगे बढ़ती है। पर आम आदमी पार्टी इसके लिए तैयार नहीं थी।

सत्ता पाने के तुरंत बाद भूषण और केजरीवाल पार्टी पर कब्जा करने के लिए तत्पर हो गए। उनकी अधीरता देखने लायक थी, लेकिन केजरीवाल भी अपना वर्चस्व गंवाने के लिए तैयार नहीं थे। दोनों विक्षुब्ध नेता एक व्यक्ति एक पद का सिद्धांत लागू करना चाहते थे और केजरीवाल के मुख्यमंत्री बनने के बाद वे उन्हें पार्टी के संयोजक के पद से हटा हुआ देखना चाहते थे।

इन सब कारणों से पार्टी इस हाल तक पहुंची है। अब उसके पास दिल्ली प्रदेश की सत्ता है, लेकिन भूषण और यादव के पार्टी से बाहर का रास्ता देखने के बाद यह वैचारिक रूप से दरिद्र दिखाई पड़ रही है। (संवाद)