यह बात राजद के सांसद राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव ने लोगों को बताई, जो खुद राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में हिस्सा ले रहे थे। पप्पू राजद के 4 लोकसभा सदस्यों में एक हैं, लेकिन उनकी शिकायत है कि उन्हें कार्यकारिणी में बोलने ही नहीं दिया गया। उन्होंने जब बोलना चाहा, तो लालू के अंध भक्तों ने उन्हें अपमानित कर बोलने से रोक दिया और लालू चुपचाप तमाशा देखते रहे। सांसद होने के बावजूद उन्हें बैठक में पहली पंक्ति में नहीं, बल्कि तीसरी पंक्ति में बेठाया गया था। कार्यकारिणी की बैठक में अपनी बात रख पाने में विफल पप्पू यादव ने बैठक के बाद सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दी कि लालू के राजनैतिक उत्तराधिकारी वही होंगे, लालू का बेटा नहीं। पप्पू की उस सार्वजनिक चुनौती के बाद लालू यादव ने भी सार्वजनिक रूप से कह दिया कि उनका बेटा पप्पू यादव नहीं हैं और उनका राजनैतिक वारिस उनका अपना बेटा ही होगा, पप्पू यादव नहीं। उन्होंने पप्पू यादव को चुनौती भी दे डाली कि यदि वे उनकी बात से इत्तफाक नहीं रखते हैं, तो राष्ट्रीय जनता दल से वे इस्तीफा दे दें।
अब पप्पू यादव क्या करेंगे? यदि वे राजद छोड़ते हैं, तो लोकसभा की उनकी सदस्यता दल बदल विरोधी कानून के कारण समाप्त हो जाएगी। इसलिए वे दल को छोड़ना नहीं चाहेंगे, हालांकि मांझी प्रकरण में उन्होंने लोकसभा की अपनी सदस्यता से भी इस्तीफा देने की पेशकश कर डाली थी। दरअसल पप्पू यादव ऐसे राजनैतिक शख्स हैं, जो मघेपुरा से निर्दलीय चुनाव जीतने की भी क्षमता रखते हैं। कांग्रेस विरोधी लहर के बावजूद उनकी पत्नी रंजीत रंजन कांग्रेस के टिकट से चुनाव जीतकर लोकसभा में आ गई हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में रंजन दंपत्ति की जीत के बाद से ही कयास लगाया जा रहा था कि राजद पर पप्पू यादव का कब्जा हो सकता है। आज यदि लालू यादव नीतीश के सामने नतमस्तक हैं, तो इसका सबसे बड़ा कारण राजद पर नियंत्रण बनाए रखने को लेकर उनमें व्याप्त असुरक्षा बोध है। लालू यादव न तो अपनी पत्नी और न ही अपनी बेटी को चुनाव जिता सके, जबकि पप्पू यादव न केवल खुद जीते, बल्कि अपनी पत्नी की जीत भी पक्की करा दी। वे कांग्रेस से एक और टिकट मांग रहे थे। यदि कांग्रेस ने उनको टिकट दिया होता, तो बिहार से कांग्रेस को एक और सीट दिलवा सकते थे।
पप्पू दंपति की जीत और लालू की पत्नी और बेटी की हार के बाद राजद के अंदर भी पप्पू के समर्थन बढ़ सकता था और नीतीश की ओर से भी राजद को तोड़ने का प्रयास जारी रह सकता था, इसलिए नीतीश से हाथ मिलाकर लालू यादव ने राजद में अपने वर्चस्व को कायम रखने और इसे टूटने से भी बचा लिया। राजद विधायकों में मुस्लिमों की संख्या अच्छी खासी है और वे भाजपा विरोध के कारण नीतीश को पसंद करने लगे हैं। लालू के लिए उन्हें भी खुश रखना जरूरी था, इसलिए उन्होंने उस नीतीश के साथ दोस्ती कर ली, जिनके कारण वे राजनैतिक रूप से बर्बाद हो चुके हैं और अब खुद चुनाव भी नहीं लड़ सकते।
लेकिन बेटे को राजनीति में स्थापित करने के लिए लालू यादव कुछ भी सहने और करने को तैयार हैं और यहां पप्पू यादव उनका काम खराब करने में लगे हुए हैं। पप्पू यादव राजद के साथ लगातार नहीं बने रहे हैं। वे इसमें कई बार शामिल हुए हैं और कई बार छोड़ चुके हैं। लालू यादव द्वारा तवज्जो नहीं मिलने के कारण वे इसे छोड़ देते थे और लालू यादव उन्हें मधेपुरा की राजनीति के कारण अपने पास फिर बुला लेते थे। इस बार फिर वे पप्पू को तवज्जो नहीं दे रहे हैं और वे शायद यह भी चाहेंगे कि पप्पू पार्टी छोड़ दें। पप्पू राजद तो छोड़ सकते हैं, लेकिन वे लालू के राजनैतिक विरासत की लड़ाई को छोड़ नहीं सकते।
राजनैतिक विरासत की यह लड़ाई राजद तक सीमित नहीं है। सच तो यह है कि यह लड़ाई प्रदेश की यादव राजनीति में वर्चस्व स्थापित करने की है। यादव बिहार की सबसे ज्यादा आबादी वाली जाति है। बिहार की आबादी का करीब 14 फीसदी यादव ही हैं। अधिक आबादी होने के साथ साथ यह जाति राजनैतिक रूप से संगठित भी है। लालू यादव की राजनीति का जनाधार अब यही रह गया है। वे चाहते हैं कि उनका बेटा उनके बाद बिहार का सबसे बड़ा यादव नेता बने, लेकिन पप्पू यादव को यह मंजूर नहीं। पप्पू यादव एक बेहद तेज तर्रार नेता हैं और अपने जनाधार के साथ उनका जुड़ाव लालू यादव से भी ज्यादा है। पर वरिष्ठता और अपने राजनैतिक कद के कारण लालू उनपर भारी हैं। लेकिन यह उनके बेटे के लिए सच नहीं है। पप्पू के साथ लालू के बेटे की कोई तुलना नहीं हो सकती। इस बात को लालू यादव भी अच्छी तरह समझते हैं और इसके कारण ही वे मुलायम और नीतीश से ताकत प्राप्त कर पप्पू यादव की राजनैतिक चुनौती का सामना करते हुए बिहार की राजनीति में अपने बेटे को स्थापित करना चाहते हैं।
लेकिन क्या लालू यादव पप्पू की चुनौती का सामना कर पाएंगे? इस सवाल का कोई सीधा जवाब नहीं हो सकता, क्योंकि स्थितियां बहुत ही जटिल हैं। इसकी जटिलता का अंदाज इसी से लगाया जा सकता है कि लालू एक तरफ अपने दल के नये दल में विलीन होने की बात करते हैं, तो दूसरे सुर में वे अपने बेटे को अपने दल में अपनी जगह स्थापित करने की बात करते हैं। (संवाद)
भारत
लालू के राजनैतिक उत्तराधिकार का प्रश्न
पप्पू यादव ने दी वंशवाद को चुनौती
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-04-09 16:44
इधर जनता दल परिवार के एक दल में उभरने के दावे किए जा रहे हैं, तो उधर राष्ट्रीय जनता दल में लालू यादव का उत्तराधिकारी कौन होगा, उसको लेकर विवाद छिड़ गया है। लालू यादव खुद कह रहे हैं कि उनके बाद राजद के सुप्रीमो उनके बेटा होगा और वह यह भी कह रहे हैं कि राजद का जनता दल परिवार में विलय हो जाएगा। सवाल उठता है कि यदि राजद का विलय ही नये दल में हो जाएगा, तो फिर इसके राजनैतिक उत्तराधिकार का सवाल ही कहां रह जाता है? और यदि लालू अपने बेटे को अपने बाद अपने राजद का सुप्रीमो बनाना चाहते हैं, तो फिर उसके विलय का सवाल ही नहीं उठता। राजद की जिस राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के बाद लालू यादव दावा कर रहे थे कि जनता दल परिवार के सदस्य दलों का आपस में विलय हो चुका है और बस अब उसकी मुलायम सिंह यादव द्वारा घोषणा करना बाकी रह गया है, उसी बैठक में लालू यादव अपने दल के नेताओं को बता रहे थे कि उनका बेटा ही उनके बाद राजद का अध्यक्ष होगा, इसके बारे में अभी से सबको स्पष्ट हो जाना चाहिए।