इस घटना आम आदमी पार्टी की एक रैली के दौरान हुई। उस रैली में केन्द्र सरकार की भूमि अधिग्रहण आदेश के खिलाफ भाषणबाजी हो रही थी। कायदे से इस घटना के बाद तो उस रैली को समाप्त कर दिया जाना चाहिए था और उस मौत पर शोक मनाते हुए सभा में उपस्थित लोगों को वहां से अपने अपने स्थान को प्रस्थान कर जाना चाहिए था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। यह आम आदमी पार्टी के नेताओं की अपरिपक्वता को दर्शाता है। वे उसकी मौत की तुलना पटना में नरेन्द्र मोदी की रैली में हुए बम धमाकों से कर रहे थे, जिसे उन धमाकों के बाद भी समाप्त नहीं किया गया था।
इस तरह की तुलना निश्चिय ही मूर्खतापूर्ण है, क्योंकि दोनों घटना बिलकुल अलग किस्म की है। गांधी मैदान में बम फट रहे थे और वहां आतंकवादी भी थे। कितनी जगह और किस जगह बम रखे हुए हैं, इसका पता किसी को नहीं था। आतंकवादी कहां और किधर हैं, इसका पता भी किसी को नहीं था। रैली में उपस्थित लोगों की संख्या लाखों में थी। यदि उनसे कहा जाता कि बम धमाके हो रहे हैं, इसलिए रैली समाप्त की जाती है, तो बम धमाकों का नाम सुनकर भगदड़ मच जाती और मरने वालों की संख्या सैंकड़ों ही नहीं, बल्कि हजारों मंे होती।
पर दिल्ली के जंतर मंतर का मामला अलग था। वहां संख्या लाखों में नहीं, बल्कि हजारों मंे थी और एक आत्महत्या की खबर सुनकर वहां के लोग उस तरह से प्रतिक्रिया नहीं करते, जिस तरह से बम धमाकों की खबर सुनकर लोग पटना में करते। हां, उनका गुस्सा जरूर बढ़ता, लेकिन उसके कारण कोई भगदड़ नहीं मचती। वे अपना गुस्सा जाहिर करते हुए वहां से निकल जाते। कायदे से उस किसान की मौत पर सभा द्वारा शोक व्यक्त किया जाना चाहिए था और शोक के साथ ही सभा के विसर्जन की घोषणा कर दी जानी चाहिए थी। पर वैसा नहीं किया गया और यह निश्चय ही दुर्भाग्यपूर्ण था। इससे पता चलता है कि केजरीवाल और उनके नजीदीकी सलाहकार में परिपक्वता की कमी है।
लेकिन इस घटना पर केजरीवाल विरोधी जिस तरह की प्रतिक्रिया जाहिर कर रहे हैं, वे और भी आपत्तिजनक है। उनके घर और दफ्तर पर प्रदर्शन किए जा रहे हैं, मानों उस मौत के लिए केजरीवाल ही जिम्मेदार हों। रैलियों और सभाओं मंे दर्शक आमतौर पर पेड़ों पर भी चढ़ जाते हैं। दिल्ली में तो ऐसा कम होता है, लेकिन ग्रामीण और कस्बाई इलाकों मे इस तरह के दृश्य देखा जाना बहुत ही आम बात है। गांव के लोगों का पेडों से खास लगाव होता है और उसका इस्तेमाल वे अनेक तरह से करते हैं। इसलिए जब ग्रामीण वेशभूषा वाला वह युवक जब पेड़ पर चढ़ा होगा, तो किसी ने यह सोचा भी नहीं होगा कि वह पेड़ पर आत्महत्या करने जा रहा है। लोगों ने यही सोचा होगा कि पेड़ की उच्चाई से वह मंच पर भाषण कर रहे लोगों को साफ साफ देखना चाहता है।
कुछ लोग पुलिस प्रशासन पर आरोप लगा रहे हैं कि उसने उस युवक को आत्महत्या करने से क्यों नहीं रोका। लेकिन सच यह है कि पुलिस को भी ऐसा नहीं लगा होगा कि वह युवक आत्महत्या करने के लिए ऊपर चढ़ रहा है या चढ़ा हुआ है। उसके हाथ में गमछा था और सिर पर पगड़ी थी। एक ग्रामीण के पास ये दोनों स्वाभाविक रूप से हो सकते हैं। पुलिस क्या कोई भी इस बात का पूर्वानुमान नहीं लगा सकता कंधे पर गमछा लेकर चढ़ रहा युवक फांसी लगाने के इरादे से चढ़ रहा है। हां, यदि उस युवक ने घोषणा करके फांसी लगाई होती और घोषणा वे फांसी लगाने के बीच कुछ समय अंतराल रहा होता, तो पुलिस का काम उसे फांसी लगाने से रोकना होता। पर ऐसी स्थिति थी नहीं। इसलिए पुलिस को भी दोष देना गलत है। जाहिर है कि आम आदमी पार्टी के नेता पुलिस को उसकी आत्महत्या के लिए जिम्मेदार बताकर प्रत्यारोपों की राजनीति कर रहे हैं। यानी भाजपा उन पर आरोप लगा रही है, तो वे भाजपा वाली केन्द्र सरकार के अधीन दिल्ली पुलिस पर आरोप लगा रहे हैं।
उस किसान की आत्महत्या से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी चितित हैं और राहुल गांधी भी। दोनों किसानों को आश्वासन दे रहे हैं कि वे घबराएं नहीं, वे उनके साथ हैं। लेकिन बयानबाजी से किसानों की समस्या का समाधान नहीं निकलता। उनके लिए कुछ क्या, बहुत कुछ करने की जरूरत है। लेकिन कोई कुछ करने को तैयार नहीं है। कुछ लोग किसान की आत्महत्याओं को अपनी राजनीति चमकाने का बेहतर अवसर की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, तो कुछ किसानों की आत्महत्या पर घड़ियाली आंसू बहाने से ज्यादा कुछ नहीं कर पा रहे हैं।
आजादी के बाद से ही कृषि बनाम उद्योग पर बहस चला करती थी। कृषि प्रधान देश भारत में सरकार ने कभी भी अपनी नीतियों मंे इसे तरजीह नहीं दी। जब 1960 के दशक में अकाल पड़े और देश के सामने अनाज का संकट पैदा हो गया, तो उन्नत और संकर बीजों के आधार पर हरित क्रांति लाने के कार्यक्रम चलाए। उस क्रांति के कारण अनाज का उत्पादन तो बढ़ा और देश अनाज के मामले में आत्मनिर्भर भी बना, लेकिन उससे किसानों की समस्या नहीं समाप्त हुई। ज्यादा उत्पादन भी उनके लिए जानलेवा साबित होता रहा। कम उपज तो उसके लिए मारक था ही।
1991 से शुरू की गई आर्थिक नीतियों मंे भी कृषि की साफ साफ उपेक्षा कर दी गई। और उसका नतीजा किसानों की बदहाली के रूप में हमारे सामने आया है। तथाकथित नई आर्थिक नीतियों के दौर में ही किसानों की आत्महत्या की संखा बढ़ी है। पिछले 24 साल में 3 लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
आज यदि राजनैतिक पार्टियां किसानों की दशा को लेकर वास्तव में चिंतित हैं, तो उसे इस पर विचार करना होगा कि नई आर्थिक नीतियों में किसान की स्थिति क्या और क्यों है। इन सवालों के जवाब की रोशनी मे उन्हों किसानों और खेती के प्रति अपना नजरिया स्पष्ट करना होगा। (संवाद)
भारत
जंतर मंतर पर किसान की आत्महत्या
कब रुकेगी किसानों की दुर्दशा पर राजनीति?
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-04-24 05:07
गजेन्द्र सिंह नाम के एक युवा किसान ने दिल्ली के जंतर मंतर पर आत्महत्या कर ली और उसके बाद सभी राजनैतिक दलों ने उस पर गंदी राजनीति करनी शुरू कर दी है। यह आज की भारतीय राजनीति का सबसे खौफनाक चेहरा है। राजनेतागण बयानबाजी में मशगूल हैं, लेकिन किसी के भी बयान में किसानों के प्रति कोई दर्द नहीं दिखाई पड़ रहा है। सभी इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर अपने राजनैतिक स्वार्थ की रोटियां सेंकने में व्यस्त हैं और किसान की दुर्दशा से शायद ही किसी का कोई ताल्लुक रहा है।