नये महासचिव के सामने पहली सबसे बड़ी चुनौती पार्टी के पुराने गौरव को वापस लाने की है और इसे देश की राजनीति मे एक बार फिर प्रासंगिक बनाने की है। सीताराम येचुरी राज्यसभा के सदस्य भी हैं और उन्होंने वहां अपनी आवाज कई बार बुलंद की है। सवाल उठता है कि उनके नेतृत्व में पार्टी क्या अपने अव्यवहारिक सिद्धांतों से ऊपर उठ पाएगी?
उनके सामने दूसरी बड़ी चुनौती पार्टी को एक बनाए रखने की है, जो आज गुटबाजी की शिकार हो गई है। केरल यूनिट में यह कुछ ज्यादा ही है। वहां पिछले कई सालों से अच्युतानंदन और विजयन एक दूसरे के खिलाफ उलझते रहे हैं। महासचिव के रूप में येचुरी की एक बड़ी जिम्मेदारी दोनों में समझौता करवाने की है। अच्युतानंदन को पोलित ब्यूरो में जगह नहीं मिली है, जबकि विजयन को उसमें शामिल कर लिया गया है। क्या उनके पास केरल यूनिट में एकता करवाने की कोई योजना है?
उनके सामने तीसरी बड़ी चुनौती पार्टी के संगठन को फिर से खड़ा करने की है। संगठन इस समय लगातार छोटा हो रहा है और बिखरता सा दिखाई पड़ रहा है। क्या इसको लेकर उनके पास कोई सोच है? आज के युवाओं की आकांक्षाएं बदली बदली सी हैं। इन आकांक्षाओ को पूरा करते हुए क्या पार्टी उन युवाओं को अपनी ओर आकर्षित कर पाएगी? आज पूरी दुनिया बदल रही है। क्या दुनिया के साथ सीपीएम अपने पुरानी अवधारणाओं को बदलकर नये जमाने के साथ तालमेल बैठाने को तैयार है?
उनके सामने चैथी बड़ी चुनौती वाम मोर्चे की एकता को बढ़ाने की भी है। सीपीएम आने वाले समय मे प्रासंगिक बनी रहे, इसके लिए वाम मोर्चे को मजबूत बनाए रखने की सख्त जरूरत है। वाम मोर्चे की चारों घटक पार्टियां अब तो एक साथ मिलकर चुनाव भी नहीं लड़ती हैं। सीपीआई और सीपीएम के बीच विलय की बातचीत भी बहुत दिनो से चलती आ रही है। महासचिव बनने के तुरंत बाद सीताराम येचुरी ने भी इसके बारे में चर्चा करते हुए कहा कि दोनों पार्टियों मंे विलय बहुत जल्द हो जाएगा।
उनके सामने पांचवीं बड़ी चुनौती विपक्ष को एकताबद्ध करने की है। भाजपा के खिलाफ सेकुलर कम्युनल मुद्दा अब काम नहीं कर रहा है। जब तक वाम पार्टियां समर्थन नहीं करें, तब तक कोई तीसरा मोर्चा खड़ा नहीं हो सकता। येचुरी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि उन्हें एक लचीला नेता माना जाता है, जो समय के साथ अपने को बदलने की क्षमता रखते हैं। उनकी पहुंच देश की अधिकांश पार्टियों के नेताओं तक है और मीडिया के लोगों से भी उनके अच्छे संबंध हैं। यदि जनता परिवार बिहार और उत्तर प्रदेश में क्लिक करता है, तो सीताराम येचुरी का काम आसान हो जाएगा। जहां तक कांग्रेस की बात है, तो उसकी अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ भी सीताराम के सबंध अच्छे हैं। यही कारण है कि वे भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने में बेहतर स्थिति में हैं।
केरल और पश्चिम बंगाल में अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। उन दोनों राज्यों के विधानसभा चुनावों में उनके राजनैतिक कौशल की असली परीक्षा होगी। (संवाद)
भारत
येचुरी के नेतृत्व में सीपीएम
क्या पार्टी अपनी खोई जमीन वापस कर पाएगी
कल्याणी शंकर - 2015-04-24 17:31
विशाखापतनम में सीपीएम के नये महासचिव के रूप सीताराम येचुरी का चुनाव हुआ। प्रकाश कारत के बाद उन्हें अपनी पार्टी का नेतृत्व संभालने का मौका मिला है। वे अपनी पार्टी के पांचवें महासचिव हैं। पार्टी का नेतृत्व उन्होंने एक ऐसे समय में संभाला है, जब पार्टी अपने अस्तित्व रक्षा की लड़ाई लड़ रही है। अब सीपीएम राष्ट्रीय पार्टी नहीं रही और वह अपने क्षेत्रीय स्वरूप को बचाए रखने के लिए भी संघर्ष करती दिखाई पड़ रही है। वाम मोर्चे की यह सबसे बड़ी पार्टी है और राष्ट्रीय स्तर पर बने अनेक मोर्चे का यह हिस्सा रह चुकी है अथवा उन मोर्चे का प्रभावशाली सहयोगी रही है। इसने 1989 की राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार का समर्थन किया था। 1996 की संयुक्त मोर्चा की सरकार का भी इसने समर्थन किया था और 2004 में केन्द्र में बनी संयुक्त प्रगतिशील मोर्चे का भी इसने समर्थन किया था। लेकिन 2011 से इसका लगातार पतन हो रहा है। उस साल उसने पश्चिम बंगाल की अपनी सत्ता गंवा दी। वहां 1977 से ही उसकी सरकार थी। इसने केरल की अपनी सरकार भी गंवा दी। इस समय उसके पास त्रिपुरा की सरकार है। 2014 के लोकसभा चुनाव में तो उसे अपने इतिहास का सबसे बुरा दिन देखना पड़ा। उसे अपने मोर्चे की पार्टियों के साथ मात्र 10 सीटों से ही संतोष करना पड़ा।