एक समय था, जब लालू के विरोधी भी उनके सामने उनके खिलाफ मुह नहीं खोल सकते थे। किसी भी जनसभा में लालू यादव को हूट नहीं किया जा सकता था। किसी राजनैतिक यात्रा के दौरान उन्हे कोई विरोध का सामना नहीं करना पड़ता था। लेकिन आज उनकी अपनी ही सभा में उनके अपने लोग ही उनके नाश की कामना करते हुए नारा लगाने लगे हैं। यह उनके लिए आत्ममंथन का समय होना चाहिए कि आखिर ऐसा हो क्यों रहा है।

महुआ में उनके समर्थक उनके वंशवाद का विरोध कर रहे थे। लालू के खिलाफ वे नहीं हैं और उनको अभी भी वे अपना नेता मानते हैं, लेकिन वे लालू के बेटे को अपना नेता मानने को तैयार नहीं हैं। सजा पाकर जेल जाने के बाद लालू ने अपने छोटे बेटे को राजनीति मे आगे बढ़ाया और अपने दल के नेताओं से उम्मीद की कि वे उसे अपना नेता मान लें, लेकिन उनके दल के नेताओं ने उनके छोटे बेटे को अपना नेता मानने से इनकार कर दिया। जेल से बाहर आकर भी लालू अपने छोटे बेटे को प्रमोट करने की कोशिश करते रहे, लेकिन उसमें वह काबिलियत ही नहीं थी कि वह नेता के रूप में पार्टी में उभर सके। उससे लालू का मोहभंग हुआ, तो उन्होंने अपनी बड़ी बेटी को लोकसभा का चुनाव लड़वा दिया, लेकिन नरेन्द्र मोदी लहर मे लालू के वंशवाद का मीसा नाम का तंबू भी उखड़ गया। भाजपा उम्मीदवार रामक ृपाल यादव से मीसा हार गईं और उधर राबड़ी देवी भी चुनाव हार गईं।

बार बार हार से पस्त लालू यादव ने मुलायम और नीतीश की ताकत का भरोसा किया और अब अपने बड़े बेटे को राजनीति मे लाकर उसे अपना वारिस बनाना चाहते हैं, लेकिन मुलायम और नीतीश का साथ ने लालू को यादवो के बीच और भी कमजोर कर दिया है। लालू ने नीतीश को बिहार विधानसभा चुनाव में अपने गठबंधन का मुख्यमंत्री उम्मीदवार स्वीकार कर लिया है। उनकी उस स्वीकृति के बाद बिहार के यादवों का अपने प्रदेश में फिर यादव मुख्यमंत्री देखने का सपना फिलहाल टूट गया है। अभी तक तो उन्हें लग रहा था कि शायद बिहार चुनाव के बाद राबड़ी देवी या लालू के परिवार का कोई सदस्य मुख्यमंत्री बनेगा, लेकिन लालू द्वारा नीतीश को अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार मानने के बाद यादवों मंे लालू के खिलाफ एक प्रकार का गुस्सा फैल गया है और उसकी एक अभिव्यक्ति वैशाली जिले में उस समय देखने को मिली, जब लालू के बेटे ने अपने आपको महुआ विधानसभा क्षेत्र का राजद प्रत्याशी घोषित कर दिया।

लालू की राजनीति का अंत कितना त्रासद है इसका अंदाज आप इससे ही लगा सकते हैं कि जिस नीतीश कुमार के कारण लालू अब विधानसभा का चुनाव भी नहीं लड़ सकते, उसी नीतीश कुमार को वे अपना नेता मानने के लिए बाध्य हो रहे हैं। नीतीश के दो समर्थक ललन सिंह और पीके शाही ने लालू यादव को चारा घोटाले के मामलेे में फंसाया। आज वे दोनों नीतीश कुमार की सरकार में मंत्री है, लेकिन लालू आज इतने लाचार हैं कि उन नीतीश को कहकर उन दोनों को मंत्री के पद से हटवा भी नहीं सकते।

लालू की छवि आज एक लाचार और पराजित नेता की है और जाति की राजनीति में किसी जाति विशेष का नेता कोई लाचार और पराजित व्यक्ति नहीं हो सकता। 2005 और उसके बाद बिहार में जितने चुनाव हुए हैं, उन सभी में लालू की एक के बाद एक पराजय होती गई है। 2005 के फरवरी महीने में हुए विधानसभा के चुनाव में लालू के दल को कुल 243 में 75 सीटें मिली थीं। उसी साल नवंबर मं हुए चुनाव में सीटों की संख्या घटकर 55 हो गईं। फिर 2009 में लोकसभा के चुनाव हुए, जिसमें लालू के दल के मात्र 4 लोग ही चुनाव जीत पाए। 2010 में विधानसभा का आम चुनाव हुआ। उसमें लालू के मात्र 22 विधायक ही जीत सके। फिर 2014 में लोकसभा का चुनाव हुआ। उसमें भी लालू के 4 उम्मीदवार ही जीते और उनकी पत्नी व बेटी चुनाव हार गईं। यानी पिछले 15 सालों में लालू ने 5 चुनाव हारे। उनका मुस्लिम यादव समीकरण धरा का धरा रह गया। उस समीकरण में उन्होंने रामविलास को साथ लेकर पासवान जोड़ने की भी कोशिश की, लेकिन उससे कोई फायदा नहीं हुआ। उन्होंने एमवाय को एमवायआर (मुस्लिम, यादव और राजपूत समीकरण) बनाना चाहा, लेकिन हार का सिलसिला नहीं थमा, क्योंकि उन्हें जीत दिलाने वाला गैर यादव ओबीसी उनका साथ छोड़ चुका था। और अब तो वे खुद भी चुनाव नहीं लड़ सकते।

इस तरह 1990 के दशक में बिहार की राजनीति का महानायक आज अपनी राजनैतिक दुर्गति को प्राप्त कर रहा है। जंजीरों में बंधकर उनकी राजनैतिक मौत हो रही है और मरते मरते भी उन्हें अपने वंश का मोह सता रहा है। सच कहा जाय, तो पुत्रमोह लालू की राजनीति के अंत को और भी त्रासद बना रहा है। (संवाद)