हार का अंतर ज्यादा नहीं रहने के बावजूद यह तो कहा ही जा सकता है कि भारतीय जनता पार्टी नीतीश- लालू गठबंधन पर भारी पड़ गई। उसका कारण यह है कि लोकसभा चुनाव के बाद हुए उपचुनावों मं इस गठबंधन को भारी जीत मिल रही थी। दोनों नेताओं ने अपने गठबंधन को उसके बाद और भी मजबूत किया और नीतीश को लालू यादव ने मुख्यमंत्री का उम्मीदवार भी मान लिया। गठबंघन को मजबूती प्रदान करने के लिए मुलायम सिंह भी उनके साथ आ गए। इस गठबंघन के बाद यह माना जा रहा था कि भारतीय जनता पार्टी पर नीतीश- लालू की यह जोड़ी और भी बड़ी जीत हासिल कर सकती है।
लेकिन नतीजा कुछ और निकला है। आखिर ऐसा हुआ क्यों? यह चुनाव ऐसे समय में हो रहा था, जब भारतीय जनता पार्टी और उसकी केन्द्र सरकार पर विपक्षी हमले तेज हो रहे थे। कुछ भ्रष्ट भाजपा नेताओं पर नरेन्द्र मोदी की चुप्पी की आलोचना की जा रही थी। उसके कारण नीतीश कुमार को लग रहा था कि विधान परिषद में उनके उम्मीदवारों की भारी जीत होगी। लेकिन उस उम्मीद पर चुनावी नतीजों ने पानी फेर दिया है।
विधान परिषद के इस चुनाव में मतदाता बिहार के स्थानीय निकायों के प्रतिनिधि थे। मतदाताओं की संख्या एक लाख से भी ज्यादा थी और पूरा बिहार 24 क्षेत्रों मे बंटकर 24 विधान परिषद विधायकों का चुनाव कर रहा था। स्थानीय निकायों में अनुसूचित जातियों को 16 फीसदी और अनुसूचचित जनजाति को एक फीसदी आरक्षण मिला हुआ था। जाहिर है, मतदाताओं मंे 17 फीसदी एससी और एसटी थे। इनका मत चुनाव के नतीजों को तय करने मे निर्णायक साबित हुआ है।
पिछले विधानसभा उपचुनावों के समय बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी थे। उन्हें नीतीश कुमार ने हटा दिया और उनकी जगह खुद मुख्यमंत्री बन बैठे। उन्हें हटाने में लालू यादव ने भी उनकी मदद की। कांग्रेस ने भी मांझी को हटाने मे भूमिका निभाई थी। यदि लालू मांझी को बनाए रखना चाहते, तो नीतीश उन्हें हटा नही सकते थे। यही कारण है कि बिहार के दलित नीतीश से ही नहीं, बल्कि लालू और कांग्रेस से भी नाराज हैं। उनकी सहानुभूति जीतनराम मांझी के साथ हैं, क्योकि श्री मांझी को उस समय हटाया गया, जब वे अपने दलित पहचान को पुख्ता कर रहे थे और दलितों के बीच हौसलाबहाली का काम कर रहे थे।
भारतीय जनता पार्टी ने इस परिस्थिति का पूरा लाभ उठाया। अब जीतनराम मांझी उसके खेमे में है। इसका नतीजा यह हुआ कि दलितों के अधिकांश मत भाजपा उम्मीदवारों को ही मिले। यह तो नहीं कहा जा सकता कि भाजपा अब दलितों के लिए प्रिय हो गई है, लेकिन मतदान नकारात्मक कारणों से भी होता है। किसी को हराने की जिद हो, तो उसे भी जिता दिया जाता है, जिसे लोग आमतौर पर नापंसद करते हैं। भाजपा को इसी का फायदा हुआ। यदि दलित फैक्टर नीतीश लालू के विरोध में काम नहीं करता, तो भाजपा की यह जीत संभव ही नहीं थी। उसे उपचुनावों वाला नतीजा ही देखने को मिलता।
दलित फैक्टर उनके खिलाफ काम करेगा, यह नीतीश कुमार को पता था, लेकिन उन्हें लग रहा था कि लालू यादव के कारण यादवों को वोट भी उनके उम्मीदवारों को भारी संख्या में मिलेगा और दलित फैक्टर से होने वाले उनके नुकसान की भरपाई हो जाएगी। लेकिन वैसा हो नहीं सका। उपचुनावों मंे तो यादवों का समर्थन जद(यू) के उम्मीदवारों को मिल गया था, लेकिन विधान परिषद के चुनाव में ऐसा नहीं हो सका, तो इसका सबसे बड़ा कारण है लालू यादव द्वारा नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमत्री उम्मीदवार मान लेना। जाति के राजनीति में जाति के लोग उसी नेता के साथ रहते हैं, जो अपनी पार्टी, या गठबंधन या क्षेत्र में सबसे बड़ा नेता हो। नीतीश को मुख्यमंत्री उम्मीदवार स्वीकार कर लालू ने सुप्रीमो की अपनी छवि खो दी। उपचुनाव के समय बिहार के यादवों को लग रहा था कि आगामी विधानसभा चुनाव के बाद यादव मुख्यमंत्री एक संभावना है, इसलिए वे भाजपा को हराने के लिए वोट कर रहे थे। लेकिन लालू द्वारा मुख्यमंत्री पद के के लिए नीतीश पर सहमत हो जाने से यह संभावना समाप्त हो गई और इसके साथ ही लालू यादव यादवों के निर्विवाद नेता नहीं रह पाए। सभी यादवों ने लालू को छोड़ दिया है, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन अधिकतर ने उनका साथ छोड़ दिया और इसके साथ बिहार में यादव ताकत बिखर गई है। लालू अब अपने यादव समर्थकों का वोट किसी और पार्टी में ट्रांस्फर नहीं करा सकते। जद(यू) उम्मीदवारों को भी यादव मत मिले हैं, लेकिन जद(यू) को उनका यह समर्थन उनके यादव उम्मीदवारों तक ही सीमित रह गया है। यदि विधान परिषद चुनाव के पहले लालू ने नीतीश को मुख्यमंत्री उम्मीदवार पर चुप्पी बनाए रखी होती, तब भी ऐसी स्थिति पैदा नहीं होती और गठबंधन के उम्मीदवार ज्यादा संख्या में जीतते।
दूसरी तरफ नीतीश का समर्थक आधार लालू को पसंद नहीं करता। अगड़ी जातियों के नीतीश समर्थक तो शुरू से ही लालू विरोधी हैं, नीतीश के गैरयादव ओबीसी समर्थक भी लालू के विरोधी हो गए हैं। नीतीश का असली आधार यह गैर यादव ओबीसी है, जो अभी भी लालू राज की कल्पना से डरता है, क्योंकि लालू राज में अपराधीकरण ने उनका जीना हराम कर दिया था और फिर वे लालू को ओबीसी आंदोलन का विश्वासघाती भी मानते हैं, जिन्होंने मुस्लिम यादव समीकरण बनाकर ओबीसी सशक्तिकरण के लिए कुछ भी नहीं किया। ऐसे लोगों का वोट इस चुनाव में लालू के उम्मीदवारों को नहीं मिला। इसलिए उनके भी 10 में से 6 उम्मीदवार हार गए। जाहिर है, भाजपा नीतीश-लालू गठबंधन पर भारी पड़ गई। (संवाद)
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बिहार विधानपरिषद के चुनाव नतीजे
क्यों भारी पड़ गई भाजपा?
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-07-11 15:29
बिहार विधान परिषद की 24 सीटों में लिए हुए मतदान में भारतीय जनता पार्टी के 11, उससे समर्थित लोकजनशक्ति पार्टी के एक और उससे समर्थित एक निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई है। जबकि जद(यू) के 5, उसके सहयोगी राजद के 4 और कांग्रेस के एक उम्मीदवार जीते हैं। इस तरह भाजपा गठबंधन 13 सीटों पर जीत हासिल कर नीतीश गठबंधन पर भारी पड़ गया है। जीत का अंतर कोई बहुत बड़ा नहीं है। पटना क्षेत्र से विजयी निर्दलीय उम्मीदवार रीतलाल यादव को राजद का समर्थन हासिल था। हालांकि वहां नीतीश के उम्मीदवार तीसरे स्थान पर रहे, पर फिर भी रीतलाल यादव को नीतीश-लालू खेमे में गिन लें तो मामला 13 और 11 का ही रह जाता है।