सच्चाई यह है कि इस तरह का प्रस्ताव कोई पहली बार नहीं आया है। यूपीए की सरकार के दौरान जब 2010 में पूरा का पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया था, तो कांग्रेस की ओर से इस तरह का प्रस्ताव आया था। उस समय भारतीय जनता पार्टी ने इस तरह के प्रस्ताव का जबर्दस्त विरोध किया था। जाहिर है कि जब आप सत्ता मे रहते हैं, तो आपके मन में इस तरह का विचार आता है और जब आप विपक्ष में होते हैं, तो आपको यह विचार बुरा लगता है। ब्रिटेन की संसद में यदि किसी सांसद को सस्पेड किया जाता है, तो वहां उसका वेतन उस अवधि के लिए काट लिया जाता है, लेकिन भारत में तो निलंबित सांसदों के वेतन भी मिलते रहते हैं।
संसदों के वेतन कटने या काटने की बात क्या, यहां तो कोशिश की जा रही है कि उनके वेतन भत्ते और भी बढ़ा दिए जाएं। भारतीय जनता पार्टी सांसद योगी आदित्यनाथ की अध्यक्षता में बनी एक कमिटी ने प्रस्ताव कर रखा है कि ासंसदों के वेतन वर्तमान 50 हजार रुपये प्रति महीने से बढ़ाकर एक लाख रुपये प्रति महीने की दिया जाय। उनको दैनिक भत्ता इस समय 2 हजार रूपये मिलता है। उसे बढ़ाकर 4 हजार कर दिए जाने का प्रस्ताव है। जाहिर है, सांसद तो अपना वेतन भत्ता और बढ़वाने पर लगे हुए हैं, भला वे वेतन कटौती की बात को क्यों स्वीकार करेंगे?
भारतीय लोकतंत्र मे इस तरह का परीक्षण पहले भी किया जा चुका है। पुराने लोग कहते हैं कि हरियाणा के मुख्यमंत्री वंशीलाल और हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपने अपने समय में इस तरह का परीक्षण किया था। इसका बुरा नतीजा दोनों को भोगना पड़ा। दोनों उसके बाद चुनाव हार गए थे। 2008 में जब लोकसभा की कार्यवाही बार बार स्थगित हो रही थी, तब तत्कालीन स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने भी काम नही ंतो वेतन नहीं विचार व्यक्त किया था। लेकिन किसी पार्टी ने तक उनका समर्थन नहीं किया था।
न्यायपालिका ने भी इस सिद्धांत का समर्थन किया है। तमिलनाडु विघानसभा का वाकया है। उसकी विशेषाधिकार समिति ने विधानसभा के निलंबित विधायको का वेतन नहीं देने की सिफारिश की थी। प्रभावित सदस्यों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था। लेकिन अदालत ने उनकी बात नहीं मानी और कहा कि उनका वेतन रोकने के लिए सही प्रक्रिया अपनाई गई थी।
हैदराबाद में 5 अगस्त, 2005 को अखिल भारतीय सचेतक कान्फ्रेंस का आयोजन हुआ था। वह उसका 13वां आयोजन था। उसमें प्रस्ताव पास किया गया था कि यदि काम न हो, तो भत्ता भी नहीं दिया जाय। यानी इस तरह का विचार तो पहले से ही जिंदा है, लेकिन उसे मानने वाला कोई नहीं है।
संसद की कार्यवाहियों को बाधित किया जाना कोई नई घटना नहीं है। यह दशकों से हो रहा है। 1980 के दशक में बोफोर्स के मसले पर पर एक से बढ़कर एक अप्रिय घटनाएं देखने को मिला करती थीं। यदि काम नहीं, तो वेतन नहीं का सिद्धांत पहले से ही लागू रहता, तो आज संसद की जो हालत हम देख रहे हैं, वह नहीं देख रहे होते। (संवाद)
भारत
काम नहीं तो वेतन नहीं
सांसदों पर पर भी यह नियम लागू करना गलत नहीं
कल्याणी शंकर - 2015-08-07 10:58
क्या काम नहीं, तो वेतन नहीं का सिद्धांत माननीय सांसदों पर भी लागू किया जाना चाहिए? पर्यटन और संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने कुछ दिन पहले वाराणसी में कहा था कि जिस तरह नौकरशाहों के लिए वेतन नहीं तो काम नहीं का फार्मूला लागू किया जाता है, उसी तरह सांसदों के लिए भी यही फार्मूला लागू करने पर सरकार विचार कर रही है। यदि सांसदों मे संसद को नहीं चलने दिया, तो उनका वेतन काटा जा सकता है। हालांकि सच यह भी है कि संसदीय कार्य मंत्री वेंकैया नायडू ने महेश शर्मा के उस दावे का तुरंत खंडन कर डाला और कहा कि सरकार इस तरह के किसी प्रस्ताव पर काम नहीं कर रही है।