अब इस गठबंधन मे तीन पार्टियां रह गई हैं। लेकिन इसके साथ इसने अपनी एक बाधा और पार कर ली है। तीनों पार्टियों में हुई सहमति के अनुसार नीतीश कुमार का दल 100 सीटों पर और लालू यादव का दल 100 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, जबकि कांग्र्रेस 40 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। नीतीश और लालू शायद कोशिश करें कि कांग्रेस अपने कोटे से कुछ सीटें देकर एनसीपी को फिर गठबंघन में ले आए, लेकिन इसकी संभावना कम ही दिखाई पड़ रही है, क्योंकि एनसीपी एक दर्जन से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए शायद तैयार न हो और कांग्रेस उसके लिए अपने कोटे से 9 सीटें छोड़ना शायद ही पसंद करेगी।
सीटों पर सहमति इस गठबंधन के लिए निश्चय ही एक उपलब्धि है, हालांकि यह एकाएक नहीं हुआ है। बहुत पहले से चर्चा थी कि लालू और नीतीश के दल सौ सौ सीटों पर चुनाव लड़ेगे। चर्चा तो यह भी थी कि कांग्रेस 35 पर तैयार हो जाएगी और शेष 8 सीटें एनसीपी के खाते में चली जाएगी। लेकिन कांग्रेस 35 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं हो सकी और चार पार्टियों का गठबंधन तीन पार्टियों के गठबंधन के रूप में सिमट गया है।
इस गठबंधन के साथ साथ जनता दल परिवार के एकीकरण की चर्चा भी बहुत हो चुकी है। इस परिवार में हरियाण के ओमप्रकाश चैटाला का भी एक दल है और कर्नाटक के देवेगौड़ा का दल भी इस परिवार का एक हिस्सा है। उत्तर प्रदेश की समाजवादी पार्टी भी इसमे शामिल है। लेकिन गठबंधन के तहत इन तीनों पार्टियों को कोई सीट नहीं दी गई है। हरियाणा का दल तो कभी बिहार मे चुनाव लड़ा ही नहीं, लेकिन समाजवादी पार्टी वहां विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़ती रही है। उम्मीद की जा रही थी कि संकेतात्मक रूप में उसे भी कुछ सीटें दी जा सकती हैं। एनसीपी द्वारा छोड़ी गई तीनों सीटों पर शायद मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को मौका मिले और इ इस तरह गठबंधन को फिर चार पार्टियों का महागठबंधन कह दिया जाय।
सीटों की संख्या तय होने के बाद अब उन सीटों की पहचान करनी होगी, जहां से तीनों पार्टियों के उम्मीदवार खड़े किए जाएंगे। यह निश्चय ही बहुत ही कठिन काम है। कठिनाई तीनों पार्टियों को होगी और सबसे ज्यादा कठिनाई तो सत्ताघारी जनता दल (यू) को ही होगी। इसका कारण यह है कि गठबंधन के तहत उसे 100 सीटों पर ही चुनाव लड़ना है, जबकि उसके मौजूदा विधायकों की संख्या ही सौ से ज्यादा है। पिछले चुनाव में उसे 115 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। बाद में कुछ और विधायक भी उसमें शमिल हो गए थे। उनमें से कुछ तो जीतन राम मांझी के साथ पार्टी से बाहर भी जा रहे हैं। फिर भी इस समय जद(यू) के 108 विधायक फिर से टिकट पाने का दावा कर रहे हैं। जाहिर है, उनमें से कई को निराश होना पड़ेगा। और विधायक दल से बाहर के उम्मीदवारों को भी निराश होना पड़ेगा।
पिछले चुनाव में जनता दल(यू) के 139 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़े थे। उनमें 115 के अलावा अन्य सभी हार गए थे। उनमें से कुछ तो बहुत ही कम मतों से हारे थे। जाहिर है, उनमें से कई इस बार टिकट पाने का गंभीर दावा कर रहे होंगे, लेकिन जब दल अपने सभी निवर्तमान विधायकों को ही टिकट देने में असमर्थ है, तो नये उम्मीदवारों को वह कहां से खड़ा करेगी। और यदि गंभीर उम्मीदवारों को टिकट नहीं दिया गया, तो वे किसी और पार्टी या निर्दलीय चुनाव लड़ सकते हैं, जिसके कारण गठबंधन के आधिकारिक उम्मीदवारों की स्थिति खराब हो सकती है। पप्पू यादव की जनहित पार्टी अथवा तारिक अनवर की एनसीपी से उन्हे टिकट भी मिल सकता है।
राजद के लिए भी असंतुष्टों को रोक पाना आसान नहीं होगा। यह सच है कि उसके पास कम निवर्तमान विधायक हैं। उसकी संख्या सिर्फ 24 ही है और उसे ऐसी 76 सीटें मिलेंगी, जिनपर वे अपना फ्रेश उम्मीदवार खड़ा कर सकता है। लेकिन उसके जो उम्मीदवार पिछले चुनाव में जद(यू) के उम्मीदवारों से कम वोटों से हारे थे, बागी बन सकते हैं और किसी और दल या निर्दलीय खड़ा होकर गठबंधन के उम्मीदवारों का काम कठिन कर सकते हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में विधानसभा की ज्यादातर सीटों पर राजद के उम्मीदवारों को जद(यू) के उम्मीदवारों से ज्यादा मत मिले थे। वहां के स्थानीय नेताओं को लग रहा था कि उन्हें इस बार वहां से दल का टिकट मिलेगा, लेकिन जद(यू) के निवर्तमान विधायक होने के कारण उन्हे टिकट मिलना लगभग असंभव हो जाएगा। तो फिर अपनी किस्मत आजमाने के लिए वे खुद मैदान में उतर नहीं जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं है।
कांग्रेस की बिहार में स्थिति बहुत खराब है। पिछले चुनाव में उसने प्रदेश की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए थे, लेकिन उसे मात्र 4 सीटों पर ही जीत हासिल हो सकी थी। उसके चार विधायकों में से तीन तो मुस्लिम विधायक थे, जो एक ही लोकसभा क्षेत्र से जीतकर आए थे। पिछले साल हुए उपचुनाव में उसका एक और विधायक जीतकर अया है। इस तरह से उसके पास कुल 5 निवर्तमान विधायक है।
लेकिन पुरानी पार्टी होने के कारण कांग्रेस में उम्मीदवारों की एक बहुत बड़ी फौज है। कहते हैं कि उसके कोटे की 10 सीटों के लिए नीतीश कुमार उम्मीदवार तय करेंगे और 10 सीटों के लिए लालू यादव उम्मीदवार तय करेंगे। यदि ऐसा होता है तो पार्टी के नेता अपनी पसंद के मात्र 15 उम्मीदवार ही तय कर पाएंगे। जाहिर है कि उम्मीदवार की फौज मे से अधिकांश को निराश ही होना पड़ेगा।
यह सब तो सीटों और उम्मीदवारों के चयन के बाद स्थिति है। सच तो यह है कि सीटो के चयन के मामले में ही गठबंघन के नेताओं के पसीन छूटने वाले हैं। (संवाद)
भारत: बिहार
लालू-नीतीश गठबंधन में कांग्रेस
सीटों को तय करना आसान नहीं
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-08-15 14:48
बिहार का कथित महागठबंधन अब एक और बाधा को पार कर चुका है, हालांकि अब इसे महागठबंधन कहना किसी भी रूप में उचित नहीं। इसका कारण यह है कि इस गठबंधन से नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी बाहर हो चुकी है। सच कहा जाय, तो पहले भी इस गठबंधन को महागठबंधन कहना गलत था, क्योंकि जिस प्रदेश में एक दर्जन से ज्यादा पार्टियां गंभीरतापूर्वव चुनाव लड़ रही हों, उसमें मात्र 4 पार्टियों के गठबंधन को महागठबंधन कहना गलत है।