शिवसेना भाजपा की पुरानी सहयोगी पार्टी है। जब सभी दलों ने भाजपा को सांप्रदायिक बताते हुए उससे किनारा कर लिया था, तब एकमात्र शिवसेना ही उसके साथ राजनैतिक गठबंधन के लिए बच गई थी। वह मूल रूप से एक क्षेत्रवादी पार्टी रही है, जो मराठी अस्मिता और हितों की राजनीति करते हुए पैदा हुई है। पाकिस्तान के खिलाफ आग उगलना भी उसका प्रिय शगल रहा है। मुसलमानों के खिलाफ आग उगलकर हिन्दू मतों की सौदागिरी करने में भी शिवसेना ने महारत हासिल कर ली है।
पाकिस्तान और मुस्लिम विरोध की राजनीति भाजपा भी करती रही है। इसलिए दोनों के बीच दोस्ती का एक साझा आधार भी मौजूद है। लेकिन शिवसेना मूल रूप से एक क्षेत्रीयतावादी पार्टी है और इसके कारण भाजपा के साथ इसके मतभेद होते रहे हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में शिवसेना ने भाजपा द्वारा प्रायोजित भैरो सिंह शेखावत को समर्थन न देकर कांग्रेस की उम्मीदवार प्रतिभा पाटिल को समर्थन किया था। संवेदनशील मौकांे पर अनेक बार शिवसेना मराठी शरद पवार को प्रधानमंत्री के रूप में समर्थन देने का संकेत भी देती रही है। वह कई बार स्पष्ट कर चुकी है कि भाजपा और मराठी क्षेत्रवाद में उसे यदि किसी एक को चुनना रहा, तो वह मराठी क्षेत्रवाद को चुनेगी।
भाजपा अब तक शिवसेना के क्षेत्रीयतावाद को बर्दाश्त करती रही है, तो उसका कारण यही है कि महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण राज्य में वह उसके साथ मिलकर ही सत्ता में आ सकती है। शिवसेना का क्षेत्रीयतावाद भी भाजपा के साथ मिलकर कुछ कमजोर तो अवश्य हुआ था, लेकिन बाल ठाकरे की विरासत की लड़ाई के कारण शिवसेना को एक बार फिर कट्टरवादी क्षेत्रीयतावादी की राजनीति अपनाना पड़ रहा है।
शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे अपनी वृद्धावस्था को प्राप्त कर चुके हैं। उनकी पार्टी अब उनके बेटे उद्धव ठाकरे के हाथ में है। उनका भतीजा राज ठाकरे अलग पार्टी बनाकर उद्धव का चुनौती दे रहा है और उसमें कामयाब भी हो रहा है। राज ने शिवसेना के क्षेत्रीयतावाद को अपनी राजनीति का मूलमंत्र बना लिया है। मुंबई में बसे उत्तर भारतीयों और उनमें भी खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश से आकर बसे लोगों के खिलाफ नफरत की राजनीति राज कर रहे हैं। कांग्रेस भी राज को बढ़ावा दे रही है। उसका लाभ उठाकर कांग्रेस ने महाराष्ट्र में दोबारा सत्ता भी हासिल कर ली है।
अब राज को आगे बढ़ने से रोकने के लिए बाल साहिब और उद्धव ठाकरे को भी उसी शैली की राजनीति करने को विवश होना पड़ रहा है। उनके पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा है। यदि शिवसेना राज ठाकरे के साथ प्रतिद्वंद्विता करते हुए घोर क्षेत्रवाद की राजनीति नहीं करती, तो राज ठाकरे लगातार मराठा मानुष की राजनीति पर हावी होते जाएंगे। राज के व्यक्तित्व के सामने उद्धव का व्यक्तित्व वैसे भी कमजोर है।
शिवसेना तो क्षेत्रीयतादी राजनीति को अपना मूल अस्त्र बनाएगी ही। फैसला भाजपा को करना है कि वह अपनी राजनीति को क्या रूप देती है। भाजपा एक राष्ट्रीय पार्टी है और उसका उन प्रदेशों में बड़ा आधार है, जिन प्रदेशों के लोगों के खिलाफ शिवसेना ने मोर्चा खोल लिया है। उन राज्यों मंे भाजपा को अपना जनाधार बचाए और बनाए रखने की चिंता तो होगी ही। भाजपा ने अपना नया अध्यक्ष महाराष्ट्र के एक नेता को बनाया है। अध्यक्ष के रूप में नितिन गडकरी पर पार्टी के जनाधार को बचाने औ बढ़ाने की जिम्मेदारी है, लेकिन यदि महाराष्ट्र में बाहर के लोगों पर हमले होते रहे तो, अन्य राज्य के लोगों के मन में महाराष्ट्र के लोगों के खिलाफ भी भावना पैदा होगी और जहां कहीं भी कोई मराठी नेता उनके सामने होगा, तो उससे वे यह जानना चाहेंगे कि महाराष्ट्र में दूसरे राज्यों के लोगों के खिलाफ हो रहे भेदभाव पर उनका क्या रुख है। यह सवाल नितिन गडकरी से भी पूछा जाएगा। इस सवाल पर उनके द्वारा लगाई गई चुप्पी उनकी पार्टी को नुकसान ही पहुंचाएगी।
व्यक्तिगत स्तर पर ही नहीं, बल्कि पार्टी के स्तर पर भी भाजपा को शिवसेना के साथ अपने संबंधों को लेकर जवाब देना होगा। जबतक राज ठाकरे उत्तर भारतीयों के खिलाफ आग उगल रहे थे, तो भाजपा उस पर ढुलमुल रवैया अपना सकती थी, लेकिन जब शिवसेना भी राज ठाकरे से मुकाबला करते हुए अपनी क्षेत्रीयतावादी राजनीति को नई ऊंचाइयों पर ले जाएगी, तो भाजपा को अपना रवैया साफ साफ करना ही होगा। किसी प्रकार की चुप्पी उसकी ओर से शिवसेना की राजनीति का समर्थन माना जाएगा।
अब भाजपा ने अपनी चुप्पी तोड़ दी है। भाजपा ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लिए भी महाराष्ट्र की क्षेत्रीयतावादी घटनाएं नई चुनातियां पेश कर रही हैं। संघ के प्रमुख भी महाराष्ट्र के ही हैं। उन्हे भी महाराष्ट्र के बाहर के संघ कार्यकत्र्ताओं और समर्थकों को जवाब देना होगा कि वे अपने राज्य महाराष्ट्र ही क्षेत्रीयतावाद के खिलाफ क्या कर रहे हैं। संघ राष्ट्रवादी संगठन होने का दावा करता है। कोई भी राष्ट्रवादी संगठन महाराष्ट्र के ़क्षेत्रीयतवाद पर चुप्पी साधकर अपने आपने राष्ट्रवाद को ही शक के दायरे में ला देगा। इसी तरह के शक के दायरे में संघ आता दिखाई पड़ रहा था। इसलिए संघ ने शिवसेना की राजनीति के खिलाफ खड़ा होने की घोषणा की और भाजपा को भी खुलकर आना पड़ा।
सवाल उटता है कि अब शिवसेना और भाजपा के गठबंधन का क्या होगा? क्या शिवसेना के साथ मतभेद व्यक्त करते हुए भाजपा उसके साथ् अपनी दोस्ती बरकरार रखेगी़? राजनीति में ऐसा भी होता रहा है। आख्रि जनता दल (यू) भाजपा को सांप्रदायिक मानते हुए भी उसके साथ है या नहीं? साथ रहना या नहीं रहना राजनैतिक फायदे और नुकसान पर भी निर्भर करता है। यदि भाजपा को शिवसेना सक फायदा होगा, तो उसके साथ सिर फुटव्वल करती हुई भी वह उसके साथ खड़ी रहेगी।
लेकिन राज ठाकरे द्वारा शिवसेना के आधार को विभाजित करने के बाद भाजपा के लिए शायद शिवसेना के साथ खड़ा रहना घाटे का सौदा होगा। पिठले विधान सभा चुनाव में शिवसेना से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद भाजपा उससे ज्यादा सीटें जीत चुकी है। विधानसभा में विपक्ष का नेता भाजपा का है। भाजपा ने महाराष्ट्र के एक व्यक्ति को अपना अध्यक्ष बना दिया है। जाहिर है, वह अब शिवसेना की बैशाखी को त्यागकर अपने पैरों पर महाराष्ट्र में खड़ा होना चाहेगी। यानी अब भाजपा और शिवसेना की दोस्ती के दिन लद गए लगते हैं। (संवाद)
भारत: राजनीति
भाजपा-शिवसेना का संग्राम
क्या अलग होंगे दो पुराने दोस्त?
उपेन्द्र प्रसाद - 2010-02-02 11:41
अब भाजपा की शिवसेना के साथ ठन गई है। यह होना ही था, क्योंकि जिस तरह शिवसेना पिछले कुछ दिनों से क्षेत्रवाद की राजनीति को हवा देने में लगी है, उसके बाद भाजपा चुप रह ही नहीं सकती थी।