यह एक न एक दिन होना ही था। एक बार जब आपने फिरकापरस्ती को अपना राजनैतिक हथियार बना लिया है, तो आप उसके इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि आपको उसकी बार बार जरूरत पड़ती है। संघ और शिवसेना ने मुस्लिम विरोध को अपना राजनैतिक हथियार बना रखा था और उस मसले पर समान विचार रखने के कारण दोनों एक दूसरे के साथ थे। देश में बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि विवाद था। रामजन्म भूमि आंदोलन में दोनों साथ साथ शिरकत कर रहे थे। दोनों का लक्ष्य मुसलमानों के खिलाफ नफरत फेलाकर सत्ता में आना था। 1995 में महाराष्ट्र में दोनों ने मिलकर सरकार भी बनाई। केन्द्र में भी दोनों ने 6 साल तक सत्ता में हिस्सेदारी की।
हालांकि शिवसेना का विरोध सिर्फ मुसलमानों तक ही सीमित नहीं रहा है। उसका जन्म मुंबई में श्रमिक आंदोलनो के खिलाफ हुआ था। उसके बाद उसने दक्षिण भारतीयों के खिलाफ आंदोलन चलाए। उन्होंने डोसा और इडली की दुकानों में तोड़फोड़ मचाई। उन्होंने गुजरातियों को भी अपना निशाना बनाया था। फिर रामजन्मभूमि आंदोलन के समय अपना ध्यान मुसलमानों के खिलाफ ही आग उगलने पर केन्द्रित किया। संघ के साथ उसने कंधे से कंधा मिलाकर इस आंदोलन में शिरकत की।
लेकिन शिवसेना से बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे के विद्रोह के बाद शिवसेना भी बदलने लगी। बाल ठाकरे ने अपने भतीजे राज के ऊपर अपने बेटे उद्धव को वरीयता दी। बेटे को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। भतीजे ने विद्रोह कर दिया और महाराष्ट्र निर्माण सेना नाम की एक पार्टी बना ली। भतीजे ने भी अपने चाचा की नफरत की राजनीति को आगे बढ़ाते हुए अपने स्वार्थ की रोटियों को संेकना शुरू कर दिया। उसने निशाना बनाया बिहारियों की छठ पूजा को। शिवसेना कभी शुक्रवार की नमाज के खिलाफ यह कहकर आंदोलन करती थी कि मुसलमान सड़को को जाम कर देते हैं। उन्होंने छठ पूजा पर आरोप लगाया कि उससे समुद्री किनारो पर गंदबी फेलती है।
लालू के 15 सालों के कुशासन के दौरान भारी संख्या में बिहारियों का अपने राज्य से पलायन हुआ। मुबई में भी उनकी संख्या बढ़ी। राज टाकरे ने बिहारियों की बढ़ती संख्या को मराठियों के लिए खतरा मानते हुए आंदोलन तेज कर दिया। टैक्सी ड्राइवरों पर हमले किए गए। कहा गया कि वे मराठी नहीं बोलते। उन्हें मराठी सीखने में दिलचस्पी भी नहीं। वे हिंदी बोलकर मराठी भाषा का नुकसान कर रहे है। अस तरह से राज ठाकरे ने अपने चाचा के मराठी फिरकापरस्तों पर पकड़ को कमजोर करना शुरू कर दिया।
शिवसेना को भी राज के नक्शे कदम पर चलना पड़ रहा है। मराठा मानूस की राजनीति को राज ठाकरे के पाले में जाने से रोकने के लिए शिवसेना को भी बिहारियों और हिंदी के खिलाफ बाग उगलना पड़ रहा है। मुसलमान अब कोई मसला वहां नहीं रहा। राम मंदिर की राजनीति अब काम नहीं आ रही है। इसलिए अब शिवसेना को भी बिहारी और हिंदी विरोध की राजनीति में ही अपनी भलाई होती दिख रही है।
लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं है। उसे पुरे देश में अपने आधार की रक्षा करनी है। हिंदी प्रदेशों को अनदेखी कर कोई भारत की राष्ट्रीय राजनीति नहीं कर सकता। संघ के लिए भी आर्यावर्त काफी मायने रखता है। वहां के अपने आधार को बचाने के लिए उसे शिवसेना के उत्तर भारतीय और हिंदी विरोध के खिलाफ खुलकर सामने आना ही था। और अब वे खुलकर सामने आ भी चुके हैं। भाजपा के अध्यक्ष ने तो शिवसेना की तुलना कश्मीर के आतंकवादियों से कर दी है।
अब सवाल उठता है कि जब शिवसैनिक और संघ के कारसेवक आपस में टकराएंगे तो उसका नतीजा क्या होगा? संघ ने अपने कार्यकत्र्ताओं से आहवान करते हुए महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की रक्षा करने के लिए कहा है। जाहिर है यह शिवसैनिको से सीधे टक्कर लेने का आहवान है। (संवाद)
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कारसेवक बनाम शिवसैनिक
सेना और संघ का टकराव क्या गुल खिलाएगा?
अमूल्य गांगुली - 2010-02-03 09:49
सांप्रदायिकतावाद की तरह ही फासीवाद भी अपने अनुयाइयों को अपना भोजन बना लेता है। यह सभी हिंसक दर्शनों की नियति रहा है। जो हिंसा को बढ़ावा देते हैं, वे खुद उसी हिंसा के श्किार हो जाता है। एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत है। जो दूसरे के लिए खाई खोदता है, वह खुद ही उसमें गिर जाता है। हम महाराष्ट्र में यही देख रहे हैं। शिवसेना और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ वहां मुसलमानों के खिलाफ एकजुट होकर अभियान चलाया करते थे। आज मराठा क्षेत्रवाद के मसले पर वहां वे दोनों एक दूसरे के सामने खड़े हैं।