दिल्ली से भागने के बाद वे बिहार का रुख कर रहे हैं, लेकिन उनके दुर्भाग्य से बिहार में उनके समुदाय की वही मानसिकता है, जो दिल्ली में थी। मुसलमान किसी भी तरह भारतीय जनता पार्टी को बिहार में पराजित करना चाहते हैं। वे भावुक हैं और उनकी अपनी भावनाएं भी हैं, लेकिन वे राजनैतिक रूप से बहुत जागरूक भी हैं और अपने वोटों को बरबाद करने के लिए मतदान नहीं करते, बल्कि किसी को जिताने और किसी को हराने के लिए वोटिंग करते हैं। और इस बार बिहार में भारतीय जनता पार्टी को टक्कर नीतीश के नेतृत्व वाले गठबंधन से ही मिल रहा है। नीतीश कुमार ने लालू यादव से गठबंधन ही इसीलिए किया है, ताकि मुस्लिम मतों का बंटवारा न हो सके। एक साथ आकर दोनों ने मुसलमानों में व्याप्त होने वाले किसी भ्रम को समाप्त करने का काम किया है और ओवैसी एक नया मंच खड़ा कर उनको नये तरीके से भ्रमित नहीं कर सकते।
हैदराबाद से बाहर निकलकर ओवैसी ने महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव भी लड़ा था और वहां दो सीटें भी हासिल की थी। कुछ राजनैतिक विश्लेषक कहते हैं कि मुस्लिम वोटों में विभाजन कर उन्होंने कांग्रेस और एनसीपी के उम्मीदवारों को हराने का काम किया और उनके कारण ही भारतीय जनता पार्टी को उतरी सारी सीटें वहां प्राप्त हो सकी। पहली बात तो ओवैसी के प्रदर्शन का विश्लेषण पूरी तरह सही नहीं है और दूसरी बात यह है कि महाराष्ट्र बिहार नहीं है। महाराष्ट्र का एक हिस्सा कभी हैदराबाद के निजाम की हुकूमत में आता था। राज्यों के पुनर्गठन के बाद हैदराबाद स्टेट का एक हिस्सा उससे टूटकर महाराष्ट्र का हिस्सा बन गया। इसके कारण ओवैसी के लिए महाराष्ट्र कोई नया क्षेत्र नहीं था। दूसरी बात यह है कि भाजपा और शिवसेना के विभाजित होकर लड़ने के कारण वहां चुनाव के पहले ऐसा आभास नहीं हो रहा था कि भाजपा जीतेगी ही, लेकिन बिहार में भाजपा बेहतर स्थिति में है।
बिहार में लोकसभा के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन को 31 सीटंे मिली थीं और वह गठबंधन न केवल बना हुआ है, बल्कि उसका विस्तार भी हो गया है। जीतनराम मांझी उससे जुड़ गए हैं। यह सच है कि लालू और नीतीश का एक साथ मिल जाना लोकसभा चुनाव के बाद की घटना है, लेकिन इसके कारण भारतीय जनता पार्टी गठबंधन को कम करके आंकना उचित नहीं होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सभाओं में पहले से भी ज्यादा लोग आ रहे हैं और बहुत जोश खरोश के साथ उनके भाषण को सुन रहे हैं। इन सबके कारण बिहार में मुसलमानों को इस बात का अहसास तो है ही कि भाजपा को हराना अत्यंत ही कठिन काम है और यह तभी हो सकता है, जब वे नीतीश लालू गठबंधन के साथ मजबूती से जुड़ें। और इसके कारण वे ओवैसी की ओर नहीं बढ़ सकते।
हां, ओवैसी के चुनाव मैदान में आने से लालू-नीतीश-कांग्रेस गठबंधन के लिए टिकट वितरण में मुसलमानों की उपेक्षा करना कठिन हो जाएगा। उन्हें उन क्षेत्रों मंे मुसलमानों को टिकट देना पड़ेगा, जिनमें उनकी संख्या अच्छी खासी है और वे वैसा करेंगे ही। इसलिए ज्यादा से ज्यादा उम्मीदवारी पाने के लिहाज से ओवैसी के बिहार चुनाव मैदान में उतरने से मुसलमानों को फायदा भी हो रहा हैं
सच कहा जाय, तो ओवैसी के कारण नीतीश कुमार को चिंता करने की उतनी जरूरत नहीं है, जितनी जरूरत तारिक अनवर के कारण चिंता करने की है। श्री अनवर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता हैं और बिहार के कटिहार लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी हैं। वे पहले भी यहां के सांसद रह चुके हैं। वे विधायक भी रह चुके हैं और 1989 में तो एक बार मुख्यमंत्री बनते बनते रह गए थे। सीताराम केसरी जब कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे, तो श्री अनवर उनके राजनैतिक सचिव हुआ करते थे। बिहार की राजनीति में उनका कद बहुत ऊंचा है और इमरजेंसी के दिनों से ही लोग उनको वहां जानते हैं। नीतीश-लालू गठबंधन से पर्याप्त सीटें नहीं मिलने के कारण वे गठबंधन से अलग हो गए हैं और अब मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर उन्होंने गठबंधन बना दिया है और यह गठबंधन तारिक अनवर को ही अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश करने का फैसला कर रहा है। यदि यादव मतदाताओं का थोड़ा रुझान भी इस गठबंधन के प्रति दिखाई दिया, तो मुसलमान भारी संख्या में इसकी ओर खिंचकर आ सकते हैं। वैसी हालत में लालू और नीतीश का काम बेहद कठिन हो जाएगा। यह तो गनीमत है कि वामपंथी दलों ने मुलायम और तारिक के साथ हाथ मिलाने से इनकार कर दिया, अन्यथा एक तीसरा मोर्चा अस्तित्व में आ जाता और बिहारी की सीधी लड़ाई तिकोनी लड़ाई में तब्दील हो जाती।(संवाद)
ओवैसी का बिहार चुनाव पर कोई असर नहीं
तारिक बिगाड़ सकते हैं नीतीश का खेल
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-09-17 17:40
हैदराबाद से राजनीति करते करते एमआइएम के नेता ओवैसी बिहार पहुंच गए हैं और वहां के मुस्लिम बहुत सीमांचल से उम्मीदवार खड़ा करने की घोषणा भी कर चुके हैं। उनके बिहार में अपनी पार्टी के उम्मीदवार उतारने की घोषणा से राजनैतिक दल उतने उत्तेजित नहीं हैं, जितने उत्तेजित टीवी मीडिया के पत्रकार और समीक्षक लग रहे हैं। राजनैतिक दल जमीनी हकीकत को बेहतर तरीके से समझते हैं और उन्हें पता है कि हैदराबाद से बिहार आकर मुस्लिम साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाला कोई व्यक्ति सफल नहीं हो सकता। बिहार चुनाव के पहले आवैसी दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी उतरने का दंभ भर रहे थे। दिल्ली में वे सभाएं भी कर रहे थे। उन सभाओं में उनके लच्छेदार भाषणों को सुनने के लिए भारी संख्या में उनके समुदाय के लोग आ भी रहे थे। भाषणों को सुनकर वे मुग्ध भी हो रहे थे और तालियां भी बजा रहे थे, लेकिन जब चुनाव लड़ने और उसके लिए उम्मीदवार चुनने की बारी आई, तो ओवैसी को निराशा ही हाथ लगी। उन्हें लग गया कि दिल्ली में चुनाव लड़ने का कोई तुक नहीं है, क्योंकि जिस समुदाय की भावनाओं को भड़काकर वे अपनी चुनावी रोटियां सेंकन चाह रहे थे, वह समुदाय भाजपा को हराने के लिए आम आदमी पार्टी के पीछे लामबंद हो रहा था। ओवैसी तब दिल्ली के विधानसभा चुनाव के मैदान में प्रवेश करने के पहले ही भाग खड़े हुए थे।