अब तक चार चुनावी गठबंधन अस्तित्व में आ चुके हैं। एक गठबंधन जद(यू), राजद और कांग्रेस का है। यह तीन पार्टियों का गठबंधन है, जिसे महागठबंधन मानने की गलती अधिकांश राजनैतिक विश्लेषक कर रहे हैं। दूसरा गठबंधन भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में चार दलों का है, जिसे राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन कहा जा रहा है। भाजपा के अलावा उसमें रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, जीतन राम मांझी का हिंदुस्तान आवाम मोर्चा और उपेन्द्र कुशवाहा के लोक जनतांत्रिक समाज पार्टी है। तीसरा गठबंधन वामपंथियों के वाम मोर्चे का है, जिसमें 6 पार्टियां हैं। वे हैं- सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई(एमएल), फाॅरवर्ड ब्लाॅक, रिवोल्युशनरी सोशलिस्ट पार्टी आॅफ इंडिया और सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर आॅफ इंडिया। चैथा गठबंधन है समाजवादी पार्टी और एनसीपी ने मिलकर बनाया है, जिसमें इन दोनों के अलावा पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी, देवेन्द यादव की समाजवादी जनता दल (सेकुलर), नागमणि की समरस समाज पार्टी और पीए संगमा की नेशनल पीपल्स पार्टी हैं। इसका नाम समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा रखा गया है।

वामपंथी पार्टियों का मोर्चा विचारधारा पर आधारित एक मोर्चा है। उनकी पार्टियों मंे से सीपीआई(एमएल), सीपीएम और सीपीआई के सदस्य बिहार विधानसभा में पहले भी जीतकर आते रहे हैं। एक समय सीपीआई बहुत ही मजबूत पार्टी हुआ करती थी, लेकिन मंडल के दौर में वह लालू यादव पर निर्भर हो गई और लालू यादव के पतन के साथ उसका भी पतन होता चला गया। लालू को छोड़ने के बाद भी वह पनप नहीं सकी, क्योंकि वह जाति की राजनीति करने में माहिर नहीं है। सीपीएम के भी कुछ प्रखर विधायक बिहार विधानसभा में हो चुके हैं, लेकिन जाति की राजनीति की वह भी शिकार हो गई और उसके विधायक भी बहुत ही मुश्किल से चुनाव जीतते हैं। पिछले चुनाव में तो उसका कोई उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। सीपीआई (एमएल) पिछले दो दशकों में अपने बूते कुछ सीटें जीतती रही हैं, लेकिन पिछले विधानसभा में उसका कोई उम्मीदवार नहीं जीता। जाति की राजनीति के कारण यह भी नहीं पनप पाई।

पहली बार इन छह पार्टियों का मोर्चा बना है और यह मोर्चा सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़ा करने का एलान कर चुका है। लेकिन इसके गंभीर उम्मीदवार कुछ ही सीटों पर होंगे। सवाल उठता है कि क्या अपने कुछ उम्मीदवारों की जिताने में मोर्चा सफल हो पाएगा? जाति की राजनीति के कारण इसके ज्यादातर उम्मीदवार चुनाव हार जाया करते हैं। इस मोर्चे की हार जीत इस बात पर निर्भर करता है कि बिहार में जाति की राजनीति का स्तर क्या है। दलित और कमजोर वर्ग इसके मुख्य जनाधार रहे हैं। इस बार मोर्चा के कुछ उम्मीदवारों के जीतकर आने की संभावना है, क्योंकि नीतीश सरकार में रणवीर सेना द्वारा किए गए नरसंहारों के दोषियों के अदालतों से आरोप मुक्त होने के कारण यह मोर्चा कमजोर वर्ग के लोगों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो सकता है।

समाजवादी धर्मनिपरपेक्ष मोर्चे का नेतृत्व तारिक अनवर कर रहे हैं। वे एनसीपी के कटिहार से सांसद हैं और प्रदेश के कद्दावर नेताओं मे उनकी गिनती होती है। पहले चर्चा की थी उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में पेश किया जाएगा, लेकिन यह विचार त्याग दिया गया। उनके साथ मुलायम सिंह यादव, पप्पू यादव और देवेन्द्र यादव भी हैं। समरस समाज पार्टी के नागमणि भी उसी मोर्चे में हैं। पप्पू यादव और खुद तारिक अनवर का सीमांचल में अच्छा प्रभाव है। वहां मुस्लिम और यादवों की संख्या बहुत ज्यादा है। यदि दोनों वहां एक हो गए, तो इस मोर्चे की जीत भारी पैमाने पर वहां हो सकती है। इसलिए इस मोर्चे को नजरअंदाज करना गलत होगा। लालू यादव ने जिस तरह से सीमांचल मंे अपने उम्मीदवारों की संख्या कम कर दी है, उससे भी यही लगता है कि उन्हें अपने मुस्लिम यादव समीकरण पर कम से कम सीमांचल में भरोसा नहीं है। तो क्या यह निष्कर्ष निकाला जाय कि समाजवादी धर्मनिरपेक्ष मोर्चा ही उस क्षेत्र में राजग को मुख्य टक्क्र देगा? मुलायम सिंह यादव पुराने समाजवादियों को भी इस मोर्चे से जोड़ रहे हैं। रघुनाथ झा और रामजीवन सिंह जैसे पुराने समाजवादी भी इस मोर्चे के साथ आ गए हैं। जाहिर है, अनेक सीटों पर इसके उम्मीदवार मुख्य मुकाबले में होंगे और उनमें से कई जीत भी सकते हैं।

इन चार गठबंधनों के अलावा मायावती की बहुजन समाज पार्टी भी अपने उम्मीदवार खड़ी कर रही हैं। बहुजन मुक्ति पार्टी भी इस बार चुनाव मैदान में है और शिवसेना ने भी यहां से अपने 150 उम्मीदवार खडे़ करने का फैसला किया है। मायावती की राजनीति ढलान पर है, इसके बावजूद उनकी जाति के लोग उनकी पार्टी के उम्मीदवारो को वोट जहां तहां डालेंगे ही। और शायद उनके भी एक या दो उम्मीदवार कहीं से चुनाव जीत जाए।

अलग अलग पार्टियों भारी संख्या में बिहार से चुनाव लड़ती रही हैं, लेकिन इस बार मोर्चाबंदी कुछ ज्यादा ही हुई है। कांग्रेस पिछले चुनाव में सभी सीटों पर लड़ रही थी, लेकिन यह मोर्चे का हिस्सा बनकर कुछ ही सीटों पर लड़ रही है। समाजवादी पार्टी ने भी पिछले चुनाव में अधिकांश सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े कर दिए थे। वहीं हाल एनसीपी का भी था। कम्युनिस्ट पार्टियों मंे भी इस चुनाव की तरह पहले चुनावांे में एकता नहीं हुआ करता था। यही कारण है कि इस बार अनेक सीटों पर सही मायनों में बहुकोणीय संघर्ष होगा और ऐसी हालत में विधानसभा के तिशंकु हो जाने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।(संवाद)