न तो उनकी टिप्पणी गलत है और न ही उनका सुझाव। वे टिप्पणी बिना नाम लिए गुजरात आंदोलन के संदर्भ में कर रहे थे। वहां का सबसे संपन्न सामाजिक वर्ग पाटीदार अपने लिए ओबीसी श्रेणी में आरक्षण की मांग कर रहा है। उसी की ओर ध्यान दिलाते हुए कहा गया है कि कोई भी संगठित होकर अपने लिए आरक्षण की मांग करने लगता है और कुछ राजनैतिक पार्टियां उसका समर्थन भी करने लगती है। जाहिर है, इस तरह की वारदात इसलिए होती है कि लोगों को हमारे नेताओं द्वारा यह नहीं बताया जाता है कि आरक्षण की व्यवस्था संविधान में क्यों की गई थी।

देश के लोगों को ईमानदार लोगों द्वारा यह बताए जाने की जरूरत है कि हमारे देश में आरक्षण की जरूरत ही क्यों पड़ी और संविधान में इसका प्रावधान क्यों किया गया। राजनेता तो लोगों का इसके बारे में बताते नहीं, तो बेहतर है कि गैरराजनैतिक लोग जो देश का हित चाहते हैं, वे यह बता दें कि आरक्षण की व्यवस्था हमारे देश में क्यों है। यदि इस तरह की मांग श्री भागवत करते हैं, तो इसमें बुरा क्या है और इसमें आरक्षण समाप्त करने की बात कहां से आती है। गौरतलब है कि कुछ समय पहले ही श्री भागवत ने कहा था कि जब तक देश में सामाजिक असमानता है, तबतक आरक्षण जारी रहना चाहिएं। पांचजन्य की उस टिप्पणी मंे भागवत का वह दर्द भी दिखाई पड़ता है कि आखिर विषमता समाप्त क्यों नहीं हो रही। यह जानने के लिए भी आरक्षण नीति की समीक्षा किए जाने की जरूरत है।

लेकिन समीक्षा की बात को लालू जैसे नेता आरक्षण को समाप्त करने की संघ की मंशा की ही बात कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने उस बयान से किनारा कर लिया है, लेकिन सवाल उठता है कि समीक्षा किए जाने में गलत क्या है?

संविधान में आरक्षण की व्यवस्था कोई नई व्यवस्था नहीं है। पिछली सदी के शुरूआती वर्षाें में ही देश के एक रियासत ने पिछड़े वर्गो के लिए अपने अधिकार क्षेत्र में आरक्षण दिया था। बाद में कुछ अन्य रियासतों ने भी उस नीति को अपनाया। फिर आंदोलन के बाद दक्षिण भारत में ब्रिटिश सरकार ने भी इसे लागू किया। पूना पैक्ट के तहत अनुसूचित जातियों के लोगों को विधायिका में आरक्षण देने पर महात्मा गांधी और अंबेडकर में सहमति बनी। उसके बाद अनुसूचित जातियों की सूची बनी। उन्हें आरक्षण दिया गया। सरकारी सेवाओं में भी उस सूची के आधार पर आरक्षण दिए गए। उन प्रावधानों को ही संविधान बनाते समय जारी रखा गया। आरक्षण देने का एक ही मकसद था और वह था कि जिन जातियो और वर्गो के लोगों को सत्ता और शासन से बाहर रखा गया है, सत्ता और शासन में उनकी भागीदारी सुनिश्चित किया जाय। जाहिर है कि किसी व्यक्ति को आरक्षण उसकी अपनी आर्थिक स्थिति के आधार पर नहीं दिया गया, बल्कि आरक्षण उसकी जाति को दिया गया और जाति का सदस्य होने के कारण ही वह आरक्षण का हकदार बना।

कुछ शब्दों में कहें, तो जाति आधारित समाज राजसत्ता के कारण पैदा हुए असंतुलन को समाप्त या कम करने के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई और जाहिर है, यह उसी सामाजिक वर्ग को दिया गया, जो सत्ता और शासन से बाहर रहने के कारण सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ गए थे। जो सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ता है, वह आर्थिक रूप से भी पिछड़ा होता है। सच्चाई भी यही है। जिन अनुसूचित जातियो, जनजातियों और पिछड़े वर्गाें को आरक्षण दिया गया है, वे न केवल सामाजिक और शेक्षिक रूप से बल्कि आर्थिक रूप से भी पिछड़े हुए हैं। इसके बावजूद हमारे संविधान निर्माताओं ने किसी वर्ग के आर्थिक पिछड़ेपन को आरक्षण देने का आधार नहीं प्रदान किया। इसके पीछे उनकी समझ यही थी कि ऐसा करने से भ्रम पैदा होगा।

पर दुर्भाग्य से वह भ्रम हमारे समाज में मौजूद है। अभी भी ऐसे लोग काफी संख्या में हैं, जो कहते हैं कि आरक्षण का आधार आर्थिक हो। वे व्यक्ति या परिवार के आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाने की वकालत करते हैं, जबकि संविधान के प्रावधानों को पढ़ने से साफ हो जाता है कि आरक्षण किसी नागरिक को नहीं, बल्कि नागरिकों के पिछड़े वर्गों को दिया गया है और किसी पिछड़े वर्ग का सदस्य होने के नाते ही कोई व्यक्ति आरक्षण पाने का अधिकार पाते है।

लेकिन साक्षरता का स्तर बढ़ने के बाद भी हमारे देश के लोग निरक्षरों जैसी बात करते हैं और उन्हें राजनेताओं द्वारा बढ़ावा मिलता है। जाति आधारित आरक्षण का विरोध करने वाले ही नहीं, बल्कि उसका समर्थन करने वाले भी आर्थिक आधार पर अलग से आरक्षण देने की बात करने लग जाते हैं। नीतीश कुमार हों या मायावती, इन लोगों ने कई बार आर्थिक आधार पर अगड़ी जातियों के लोगों के आरक्षण की बात की है। इस तरह की बातें राजनीति के तहत की जाती हैं और इसके कारण भ्रम फैलता है।

कबतक किसी वर्ग को आरक्षण मिले- यह सवाल भी श्री भागवत ने उठाया है। इसका जवाब भी संविधान में है। जब तक किसी पिछड़े वर्ग को सरकारी सेवाओं में पर्याप्त हिस्सेदारी नहीं मिल जाती, तक तक उसके लिए आरक्षण का प्रावधान है। कोई एक वर्ग हो हमारे देश मंे हैं नहीं। हजारों सामजिक वर्ग हैं, जिन्हें हम जातियां कहत हैं। उनमें से यदि कोई वर्ग सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा नहीं रह जाता है और पर्याप्त प्रतिनिधित्व सरकारी सेवाओं मंे हासिल कर लेता है, तो फिर वह आरक्षण का अधिकार भी खो देता है। इसलिए यह समीक्षा तो की ही जा सकती है कि किन जातियों ने उचित प्रतिनिधित्व हासिल कर लिया है। ऐसी जातियों को आरक्षण सूची से बाहर कर देने में कुछ भी गलत नहीं है, लेकिन इसे तय करने के लिए ठोस आंकड़ा चाहिए और आंकड़ा जानने के लिए जातियों से संबंधित पुख्ता जानकारी जनगणना के दौरान हासिल की जानी चाहिए। बिना ठोस आंकड़े के समीक्षा नहीं की जा सकती। इसलिए जाति जनगणना के आंकड़े को सार्वजनिक करने की मांग करने वाले लालू यादव को तो भागवत की इस मांग से खुश होना चाहिए और समीक्षा के लिए आवश्यक आंकड़ों को जुटाने और प्रकाशित करने की मांग करनी चाहिए। (संवाद)