वैसे लालू यादव कहीं से भी चुनाव प्रचार की शुरुआत करने के लिए स्वतंत्र हैं। वे चाहें, तो पड़ोसी झारक्षंड के किसी क्षेत्र से बिहार विधानसभा का चुनाव प्रचार शुरू करें या उत्तरप्रदेश के विंध्यवासिनी मन्दिर से, यह उनकी मर्जी, लेकिन अपने चुनाव प्रचार में उन्होंने जाति का जिस तरह से इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, वह उनके लिए भी एक अभूतपूर्व घटना है। 1990 के मंडल और मंदिर आंदोलन के दौर में भी वे जाति का इस्तेमाल इतने घिनौने रूप नहीं कर रहे थे, जिस तरह इस बार कर रहे हैं। वे अपने भाषणों मंे तब पिछड़े, दलितों, अकलियतों और गरीबों की दुहाई दिया करते थे, लेकिन इस बार तो वह ’’यादव यादव’’ की ऐसी रट लगा रहे हैं, जो आश्चर्यजनक और अभूतपूर्व है।

राधोपुर विधानसभा क्षेत्र यादव बहुत क्षेत्र है, लेकिन यादवों की आबादी वहां इतनी भी नहीं कि सिर्फ उसी के बल पर कोई जीतने का दंभ करे। ज्यादा से ज्यादा वहां यादवों की आबादी 30 या 35 फीसदी होगी। यानी गैर यादवों की जाति यादवों से दुगनी होगी। इसलिए ज्यादा ’’यादव यादव’’ करने के खतरे यह हैं कि कहीं सारे गैर यादव किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में गोलबंद होकर लालू के बेटे को हरा न दे। पिछले विधानसभा चुनाव मंे लालू की पत्नी राबड़ी देवी वहां से 13 हजार से भी ज्यादा मतों से हार चुकी हैं। लगभग सभी यादवों ने उस चुनाव मंे उन्हीें को वोट डाला था। उस समय रामविलास पासवान भी लालू के साथ है। श्री पासवान जिस हाजीपुर से लोकसभा में जीतकर आते हैं, राघोपुर विधानसभा क्षेत्र उसी हाजीपुर का हिस्सा है। जाहिर है, पिछली बार रामविलास के दलित समर्थकों का मत भी लालू की पत्नी को मिला होगा। उसके बावजूद उनकी पत्नी चुनाव हार गई थीं और वह भी एक बड़े अंतर के साथ।

इसलिए इस बार लालू यादव अपने जाति के साथ साथ ओबीसी कार्ड खेलने में लगे हुए हैं। ओबीसी कार्ड खेलकर वे 1990 के दशक में भी चुनाव जीता करते थे। लेकिन तब से अब तक दो दशक बीत चुके हैं। राघोपुर के पास बहने वाली गंगा से खरबों किलोलीटर पानी अबतक बह चुके हैं। उसके बाद एक पूरी नई की नई पीढी अस्तित्व में आ गई है और एक पुरानी पूरी की पीढ़ी समाप्त हो गई है। उसके बाद भी यदि लालू यादव समझते हैं कि वे 1990 के मंडल राजनीति के द्वारा अपने दोनों बेटों को राजनीति मे स्थापित कर देंगे, तो वह बहुत बड़ी भूल कर रहे हैं।

सच कहा जाय, तो जिस ओबीसी राजनीति में लालू अपने बेटों का भविष्य देख रहे हैं, उस राजनीति को समाप्त करने का श्रेय उन्हीं को जाता है। पूरे ओबीसी ने उनका उस समय साथ दिया था, लेकिन वे सिर्फ अपनी जाति के लोगों को आगे बढ़ाने का काम करते रहे। सही अर्थ में वे अपनी जाति के लोगों का भी सशक्तीकरण नहीं कर रहे थे, बल्कि उसमें भी वे दलालों और अपराधी टाइप के तत्वों को बढ़ावा दे रहे थे। अपनी जाति के साथ साथ वे मुसलमानों में भय और लोभ पैदा कर उनकी सांप्रदायिक भावना का दोहर कर मुस्लिम यादव समीकरण को बढ़ावा दे रहे थे और शेष ओबीसी जातियों के लोगों के प्रति हिकारत का भाव रखते थे। इसके कारण ही गैर यादव ओबीसी जातियों उनके खिलाफ होती चली गईं और क्रमशः उनका राजनैतिक पतन होता चला गया। यादव और मुस्लिम समीकरण के द्वारा कभी भी चुनाव नहीं जीता जा सकता है। पहले भी उनकी जीत यादव- मुस्लिम के अलावा शेष ओबीसी के समर्थन के कारण ही हुआ करता था, लेकिन उनके शासनकान में कमजोर वर्गों के ओबीसी का सबसे ज्यादा नुकसान हुआ। अपराधीकरण का शिकार जो लोग हो रहे थे, उनमें ज्यादातर लोग ओबीसी के ही थी। इसलिए उन्होंने लालू यादव का साथ छोड़ दिया और फिर तब लालू का इस बात का अहसास हुआ कि मुस्लिम यादव समीकरण उन्हें जिताने के लिए पर्याप्त नहीं है। और वे 2005 के बाद से बिहार में चुनाव हारते रहे। वे खुद अपना चुनाव भी हारे। उनकी पत्नी राबड़ी देवी 2010 के विधानसभा चुनाव में दोनों सीटों से चुनाव हारीं और 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी बेटी और पत्नी दोनों ही चुनाव हारी।

अब वे फिर ओबीसी राजनीति की शरण में आ गए हैं। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि काठ की हांड़ी दो बार चूल्हे पर नहीं चढ़ाई जा सकती। उन्होंने ओबीसी आंदोलन को मुस्लिम-यादव के सांप्रदायिक जातिवादी समीकरण की कब्र में दफन कर दिया था और अब उसी कब्र को खोदने में लगे हुए हैं। लेकिन अब ओबीसी के लोग उनके झांसे में आएंगे, इसकी संभावना नही ंके बराबर है। सच तो यह है कि अब यादवों का पूरा समर्थन पाने के लिए भी उन्हें एड़ी चोटी का पसीना एक करना पड़ रहा है, क्योंकि यादव राजनीति में भी पप्पू यादव जैसे लोग उनके लिए चुनौती बने हुए हैं। (संवाद)