लेकिन गोमांस के मसले पर बयान देकर लालू यादव ने एक ऐसा काम किया है, जो उनके और नीतीश कुमार के मंसूबे को नाकाम कर सकते हैं। लालू यादव खुद को गोपालक समुदाय का ही बताते हैं। गोपालक जाति ही उनका अब मुख्य जनाधार है। वह कभी पिछड़ों के एकछत्र नेता हुआ करते थे, लेकिन मुस्लिम यादव समीकरण पर जोर देने और सत्ता में रहते हुए सिर्फ अपनी जाति के सशक्तीकरण के प्रति सजग रहने के कारण गैर यादव पिछड़े वर्गो का समर्थन वे खो चुके हैं। उनकी और उनकी पत्नी के शासन के दौरान बिहार का पूरी तरह से अपराधीकरण हो गया था और उस अपराधीकरण का सबसे बड़ा शिकार पिछड़े वर्गो की कमजोर जातियां ही थीं। इसके कारण भी लालू यादव का पिछड़े वर्गो मंे समर्थन समाप्त हो गया और वे सिर्फ अपनी जाति तक सीमित रह गए। वे मुसलमानों के तुष्टीकरण की नीति भी अपनाया करते थे। इसके कारण मुसलमानों के भी वे चहेते बन गए।
पर बिहार में मुस्लिम यादव समीकरण चुनाव जिताने के लिए काफी नहीं है। इस समीकरण पर आश्रित लालू यादव लगातार एक के बाद एक 5 चुनाव हार चुके हैं। 2005 में विधानसभा के दो बार आमचुनाव हुए। पहले आम चुनाव में उनकी पार्टी को 75 सीटें मिलीं और दूसरी में मात्र 55 सीटें। फिर 2010 मंे विधानसभा के चुनाव हुए और उनकी पार्टी को उसमें 22 सीटें मिली। 2009 में लोकसभा के चुनाव हुए और उनकी पार्टी को मात्र 4 सीटों पर ही जीत हासिल हो सकी। 2014 में भी उनकी पार्टी को सिर्फ 4 सीटों पर ही जीत हासिल हुई। 2014 के लोकसभा चुनाव में वे खुद पाटलीपुत्र सीट से चुनाव हार गए, हालांकि एक अन्य क्षेत्र से चुनाव जीतकर संसद पहुंचने में सफल हो गए। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी बेटी और पत्नी दोनों चुनाव हार गई थीं। 2010 के विधानसभा आम चुनाव में उनकी पत्नी राबड़ी देवी दो जगहों से चुनाव लड़ रही थी और दोनों जगहों से ही वह चुनाव हार गई थीं।
इस तरह लालू यादव एक के बाद एक 5 चुनाव हारे। इन पांचों चुनावों में उन्हें यादवों और मुसलमानों का भरपूर समर्थन मिला, लेकिन दोनों की संयुक्त आबादी बिहार में 30 फीसदी है और यह समीकरण चुनाव जिताने में न तो कभी सक्षम था और न ही कभी सक्षम हो सका। 1990 के दशक की लालू की जीत अन्य पिछड़े वर्गो के सहयोग के कारण ही हुआ करता था, जिसे लालू यादव मुस्लिम यादव समीकरण की जीत बता देते थे।
अपने मुस्लिम यादव समीकरण में अन्य पिछड़े वर्गो को जोड़ने के लिए ही लालू यादव ने नीतीश कुमार का दामन थामा और उन्हें लगा कि इसके द्वारा वे अपने बेटों को बिहार की राजनीति में स्थापित करने में सफल हो जाएंगे। इसलिए चुनाव अभियान शुरू होते ही वे मंडल राज की बात करने लगे। मंडल राज की बात करके वे पिछड़े वर्गों को एक करने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनके दुर्भाग्य से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी पिछडे वर्ग से ही हैं और इसके कारण अब पिछड़े वर्गों में भारतीय जनता पार्टी के प्रति पहले वाला दुराव नहीं रहा।
बिहार में अन्य पिछड़े वर्गों को दो श्रेणी में विभाजित कर दिया गया था। एक श्रेणी को ओबीसी और दूसरे को एमबीसी कहा जाता है। संयोग से नरेन्द्र मोदी की जाति यानी तेली एमबीसी ( अति पिछड़ा वर्ग) में आता है। इसी साल नीतीश कुमार ने उसे ओबीसी से एमबीसी मंे लाने का काम किया है। और एक सच यह भी है कि बिहार में एमबीसी की आबादी 34 फीसदी है, जबकि ओबीसी की आबादी 21 फीसदी ही है। 13 फीसदी आबादी यादवों की है। प्रधानमंत्री के एमबीसी होने के कारण अति पिछड़ों का ज्यादा झुकाव भारतीय जनता पार्टी के कारण है और उनके समर्थन के कारण भी भाजपा की स्थिति मजबूत थी।
इस तरह के राजनैतिक समीकरण से उपजे माहौल में लालू यादव द्वारा गोमांस पर दिया गया बयान उनकी अपनी जाति में स्थिति कमजोर करने का काम कर रही है। गाय हिन्दुओं के सम्मान का पात्र है। हिन्दु गाय की पूजा करते हैं, लेकिन यादव की तो पहचान ही गाय के कारण है। उन्हें गोपालक और ग्वाला भी कहा जाता है। हिन्दुओं में यदि गाय के प्रति सबसे ज्यादा श्रद्ध रखने वाली कोई जाति है, तो वह लालू यादव की यादव जाति ही है। और लालू ने कह डाला है कि हिन्दू भी गाय खाते हैं, जो तथ्यात्मक रूप से गलत है। एक सांस में वे कहते हैं कि विदेश जाने वाले हिन्दु वहां जाकर गौमांस खाते हैं, तो दूसरी संास मंे कहते हैं कि अपने हिन्दुस्तान में भी हिन्दू गाय का मांस खाते हैं। अपवाद स्वरूप कुछ हिन्दु गाय का मांस खाते होंगे, लेकिन अपवाद स्वरूप तो कुछ हिन्दु आदमी का मांस भी खाते होंगे। नोएडा के निठारी में सुरेन्द्र कोली नाम के एक व्यक्ति को नरमांस खाने के आरोप में सजा भी सुनाई जा चुकी है। इसका मतलब यह नहीं है कि कोई कहे कि हिन्दु नरमांस खाते हैं।
लालू यादव के इस बयान से उनका अपना जाति आधार उनके पैरों के नीचे से खिसक सकता है। मंडल राज की बात करके और बैकवर्ड फारवर्ड की बात करके लालू ने अगड़ी जातियों को तो पहले ही अपना विरोधी बना दिया है और अब यादवों को भी गोमांस खाने वाले अपने बयान से उन्होंने नाराज कर दिया है। इसके कारण यादवों का यदि एक छोटा हिस्सा भी भाजपा की ओर गया, तो लालू और लालू गठबंधन का भारी नुकसान हो जाएगा। (संवाद)
गोमांस पर लालू का बयान भारी पड़ सकता है नीतीश गठबंधन पर
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-10-06 10:19
शुरू से ही बिहार का चुनाव एक अनिश्चय भरा चुनाव दिखाई पड़ रहा था। 1990 के बाद का यह पहला चुनाव है, जिसमें किसी भी प्रकार की भविष्यवाणी करना मुश्किल है। नीतीश और लालू के एक मंच पर आ जाने और कांग्रेस का भी साथ मिल जाने के बाद यह गठबंधन बेहद मजबूत बन गया था। लालू यादव का मूल आधार उनकी अपनी जाति यादव है। वे नीतीश को पसंद नहीं करते, लेकिन जब भाजपा नेताओं ने जंगल राज का मुद्दा उठाया और भागवत ने आरक्षण की समीक्षा की मांग कर दी, तो यादव जाति के लोग नीतीश की तरफ झुकने लगे थे। इन दोनों घटनाओं के कारण लालू और नीतीश के गठबंधन की मजबूत और बढ़ी। लेकिन नरेन्द्र मोदी का जादू भी बिहार में अभी कम नहीं हुआ है। उनकी सभाओं मंे उमड़ रही भीड़ और प्रदेश के अति पिछड़े वर्गो के बीच लालू अलोकप्रियता का लाभ भी भाजपा को मिलता दिखाई दे रहा था। जाहिर है, टक्कर कांटे की थी।