इस तरह एक के बाद एक चुनावों मंे मिल रही हार ने लालू के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया था। सजायाफ्ता होने के कारण वे खुद तो चुनाव लड़ नहीं सकते और उनकी जिंदगी का एक मात्र लक्ष्य अपने दोनों बेटों को बिहार की राजनीति में स्थापित करना है। सामंती प्रवृति का व्यक्ति होने के कारण उन्होंने अपनी बेटियों को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया। वे अपने बेटों के व्यस्क होने का इंतजार करते रहे, लेकिन इंतजार की इस अवधि में उनका राजनैतिक पतन होता गया और उन्हें लगने लगा कि यदि अपने परिवार की अगली पीढ़ी में से किसी को राजनीति में नहीं उतारा, तो बहुत देर हो जाएगी और वे कुछ कर नहीं पाएंगे। इस अहसास ने उन्हें अपनी बड़ी बेटी मीसा को पाटलिपुत्र से चुनाव लड़ाने को विवश कर दिया, लेकिन वह चुनाव हार गईं।

अब लालू के दोनांे बेटे व्यस्क हो गए हैं और विधानसभा चुनाव लड़ने की आयु भी प्राप्त कर चुके हैं। इसलिए अपने राजनैतिक कैरियर के पतनकाल में उन्होंने नीतीश कुमार से हाथ मिला लेना उचित समझा, ताकि उनके साथ मिलकर वे अपने दोनों बेटों को राजनीति में स्थापित कर सकें। इसके लिए उन्होंने नीतीश कुमार को बिहार का मुख्यमंत्री उम्मीदवार भी स्वीकार कर लिया।

लालू द्वारा मुख्यमंत्री उम्मीदवार स्वीकार कर लिए जाने को नीतीश कुमार ने अपनी बड़ी उपलब्धि मानी और उन्हें लगा कि उनका भविष्य निष्कंटक हो गया है, लेकिन चुनाव अभियान के दौरान लालू यादव ने जो रवैया अपना रखा है, उसके कारण नीतीश कुमार के समर्थक उन्हें एक के बाद एक छोड़ते जा रहे हैं। मुख्यमंत्री के रूप में नीतीश कुमार ने तथाकथित अगड़ी जातियों के बीच में अपना एक समर्थक आधार तैयार कर लिया था। उन्हें खुश करने के लिए उन्होंने एक सवर्ण आयोग की स्थापना भी कर ली थी। कहते हैं कि जीतन राम मांझी को उन्होंने अपने अगड़े समर्थकों को खुश करने के लिए ही हटाया, जो जीतन राम मांझी के उस बयान से नाराज हो गए थे, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारत के सभी सवर्ण विदेशी हैं।

लेकिन लालू यादव के कारण वे अगड़े समर्थक नीतीश का साथ छोड़ चुके हैं। 30 अगस्त को पटना में हुई स्वाभिमान रैली में लालू ने कहा था कि वे मंडल राज दो स्थापित करने के लिए नीतीश के साथ आए हैं। इतना काफी नहीं था। एक सभा में उन्होंने इस चुनाव को बैकवर्ड और फाॅर्वड के बीच की लड़ाई तक बता दिया। इसके कारण नीतीश के साथ जो थोड़े बहुत अगड़े रह गए थे, वे सब साथ छोड़ गए। उसका ही नतीजा है कि राहुल गांधी और सोनिया गांधी ने उसके बाद लालू के साथ मंच साझा करने से इनकार कर दिया है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल नीतीश कुमार के नये दोस्त के रूप में उभर रहे थे। वे नीतीश से अपनी दोस्ती का इजहार करने के लिए एक कार्यक्रम में पटना भी जा पहुंचे और वहां जाकर नीतीश की बड़ाई की। पहले वे नीतीश के लिए प्रचार करने की बात कर रहे थे, लेकिन लालू के मंडल राज की हुकार के बाद उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि वे नीतीश का समर्थन तो करते हैं, लेकिन उनके लिए वे प्रचार नहीं करेंगे। जब लालू ने बिहार के चुनाव को बैकवर्ड और फाॅवर्ड के बीच की लड़ाई करार दिया, तो फिर केजरीवाल ने घोषणा कर दी कि बिहार के चुनाव मंे वे किसी का समर्थन नहीं करते। इस प्रकार लालू ने नीतीश के एक अच्छे दोस्त को उनके पास से भगा दिया।

नीतीश ने लालू का साथ इसलिए लिया था, ताकि मुस्लिम मत उनके साथ पूरी तरह रहे और उन मतों का बंटवारा न हो। उसके साथ साथ नीतीश की नजर लालू के यादव समर्थकों पर भी थी। लेकिन गोमांस पर लालू के दिए गए बयान ने नीतीश का काम और भी बिगाड़ दिया है। लालू ने कह डाला कि गोमांस मुसलमान ही नहीं, बल्कि हिंदू भी खाते हैं। लालू की जाति के लोग गौपूजक हैं। वे इस तरह की बात को बर्दाश्त नहीें कर सकते। अब लालू के विरोधियों ने उनके बयान को आधार बनाकर यह कहना शुरू कर दिया है कि लालू खुद गोमांस खाते हैं। इसके कारण यादवों मंे लालू का करिश्मा कमजोर हो रहा है, जिसका नुकसान लालू और नीतीश दोनों को हो सकता है।

लालू के कारण नीतीश को मतों का कितना इजाफा होगा, इसका पता तो फिलहाल नहीं चल रहा है, लेकिन उससे होनेवाले नुकसान को कोई भी देख सकता है। लालू के बयान इस तरह के होते हैं, जिनमें नीतीश के बयान भी छिप जाते हैं और ऐसा आभास होता है कि भारतीय जनता पार्टी को हराने के लिए बने मुख्य गठबंधन का नेतृत्व नीतीश कुमार नहीं, बल्कि लालू यादव कर रहे हैं। इस तरह बिहार का चुनाव कम से कम चुनाव अभियान में लालू बनाम नरेन्द्र मोदी में तब्दील होता दिखाई पड़ रहा है। (संवाद)