57 फीसदी का यह आंकड़ा भी अंतिम आंकड़ा नहीं है। निर्वाचन आयोग का खुद मानना है कि यह शुरुआती जानकारियों के आधार पर तैयार किया गया आंकड़ा है और जब सभी जानकारियां सही सही आ जाएंगी, तो यह आंकड़े और भी बढ़ सकते हैं। अंतिम आंकड़े एक से डेढ़ फीसदी और भी ज्यादा हो सकते हैं। कुछ चुनाव शास्त्रियों का कहना है कि यह आंकड़ा 60 फीसदी के पास भी पहुंच सकता है।
जिन विधानसभा सभा क्षेत्रों मंे मतदान हुए, उनमें से कुछ नक्सल प्रभावित भी हैं और वहां माओवादी लोगों से मतदान के बहिष्कार की अपील भी करते हैं। यानी माओवादियों के प्रभाव में या उनके डर से कुछ लोग वोट डालने नहीं जाते हैं। कहने का मतलब यह है कि बिहार के ज्यादातर इलाके माओवादियों के प्रभाव से मुक्त हैं और जहां माओवादी प्रभावी नहीं हैं, वहां मतदान ज्यादा होते हैं। पहले फेज में ही माओवादी प्रभाव वाले नवादा में मतदान कम हुआ जबकि उस प्रभाव से मुक्त खगड़िया और समस्तीपुर में मतदान ज्यादा हुए। यानी आने वाले चरणों मंे और भी ज्यादा मतदान फीसदी की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
बिहार के लोगों की एक अच्छी खासी संख्या प्रदेश से बाहर रहती है और मतदाता सूची में नाम होने के बावजूद वे मतदान नहीं कर पाते। लेकिन अब त्यौहारों का समय शुरू हो गया है और लोग बाहर से अपने अपने घरों में वापस आने लगे हैं। इसके कारण शेष 4 चरणों में मतदान का प्रतिशत और भी ज्यादा बढ़ेगा। इसके अलावा चुनाव नतीजों को लेकर लगभग सभी दलों और गठबंधनों मे अनिश्चितता की स्थिति बनी हुई है और उसके कारण सभी दल और गठबंधन अपने अपने समर्थकों को ज्यादा से ज्यादा मतदान केन्द्रों पर ले जाने की कोशिश में लगे हुए हैं। इसके कारण भी आने वाले चरणों में मतदान का प्रतिशत और भी बढ़ने का अनुमान है।
सवाल उठता है कि बढ़े हुए मतदान प्रतिशत का क्या संकेत है? क्या यह सरकार बदलने की लोगों की इच्छा का संकेत है? आमतौर पर चुनाव शास्त्रियों और राजनैतिक विश्लेषकों की यही मान्यता होती थी कि जब लोगों के बीच परिवर्तन की चाह होती है, तो भारी संख्या में मतदान के लिए अपने घरों से निकलते हैं और सरकार बदल जाती है। लेकिन पिछले एक दशकों से हुए चुनाव इस परंपरागत मान्यता को खंडित कर चुके हैं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात जैसे कुछ राज्यों मंे मतदान प्रतिशत तो बढ़ता है, लेकिन सरकार नहीं बदलती। खुद बिहार में भी 2010 में कुछ ऐसा ही देखने को मिला था। 2005 के विधानसभा चुनाव में 45 फीसदी मत पड़े थे, जो 2010 के चुनाव में 9 फीसदी बढ़कर 54 फीसदी हो गए थे। उसके बावजूद नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन की जीत हुई थी और वह जीत बहुत ही ऐतिहासिक जीत थी, क्योंकि गठबंधन को 80 फीसदी से भी ज्यादा सीटों पर कब्जा हो गया था। इसलिए यह मानना गलत होगा कि ज्यादा मत पड़ने का मतलब आवश्यक रूप से सरकार बदलने का जनादेश ही होता है।
अनुमान लगाने के इस संकट के बावजूद यह कहा जा सकता है कि बिहार में इस बार ज्यादा मतदान का मतलब लोगों की सरकार बदलने की इच्छा ही हो सकती है। पिछले 2010 के चुनाव में मत के प्रतिशत में हुई वृद्धि नीतीश कुमार के कुछ उठाए गए कदमों के कारण हुई थी। अपनी सरकार के पहले कार्यकाल मंे उन्होंने महिलाओं को स्थानीय निकायों के चुनावों मंे 50 फीसदी आरक्षण दे दिए थे। दलितों और आदिवासियों को भी उनकी आबादी के अनुपात में उन्होंने आरक्षण दे दिए थे और अति पिछड़ा वर्ग के लोगों को भी स्थानीय निकायों के चुनावों मंे 20 फीसदी आरक्षण दे दिए गए थे। इसके कारण लोगांेे में नीतीश के प्रति समर्थन का भाव बढ़ गया था। लालू यादव के खिलाफ भी जनभावना बनी हुई थी और लोग नहीं चाहते थे कि लालू का राज एक बार फिर लौटे। इसके कारण बिहार के लोगों ने भारी संख्या में निकलकर मतदान किया और मतदान फीसदी 45 से बढ़कर 54 हो गया था।
इस बार तो मतदान का प्रतिशत और भी बढ़ रहा है। इसका मायने यह है जो अराजनैतिक लोग पहले मतदान नहीं करते थे, धीरे धीरे वे राजनैतिक हो रहे हैं और मतदान केन्द्रों पर जा रहे हैं। आखिर वे किन कारणों से राजनैतिक हो रहे हैं? राजनैतिक होने का एक कारण जातिवादी चेतना होती है। बिहार में राजनैतिक करण मुख्य रूप से इसी जातिवादी चेतना के कारण हुई है और इसके कारण ही जातिवादी राजनीति और नेताओं का वहां वजूद हो गया है। लेकिन एक ऐसा वर्ग भी है, जिनके अंदर जातियां तो बहुत हैं, लेकिन उन जातियों के कोई नेता नहीं है और वे हो भी नहीं सकते, क्योंकि अलग अलग जातियों की संख्या बहुत कम हैं, हालांकि उन सभी गौण जातियों की सम्मिलित संख्या बहुत है। वैसे लोग जब राजनैतिक होकर वोट डालने जाते हैं, तो वे अपनी जाति के लोगों के लिए वोट नहीं देने जाते, क्योंकि उनकी जाति के उम्मीदवार चुनाव मैदान में होते ही नहीं।
अब बिहार में मतदान प्रतिशत उन गौण जातियों के लोगांें के राजनैतिककरण के कारण ही बढ़ रहा है। वे किसे वोट देंगे, इसका जवाब जानने के लिए यह जानना जरूरी होगा कि वे किसके कारण राजनैतिक हो रहे हैं। नीतीश के कारण 9 फीसदी मतदाता 2010 के चुनाव मंे राजनैतिक हुए थे और उनका समर्थन नीतीश के गठबंधन को उस समय मिल गया था। लेकिन इस बार वे राजनैतिक नरेन्द्र मोदी के कारण हो रहे हैं। जाहिर है, इस बार ज्यादा मतदान का लाभ नरेन्द्र मोदी के गठबंधन हो होने जा रहा है। (संवाद)
बिहार के पहले चरण का चुनाव: रिकार्ड मतदान के मायने
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-10-13 11:12
बिहार विधानसभा के पहले चरण में 57 फीसदी से भी ज्यादा मतदान हुए। मतदान का यह फीसदी 2010 के विधानसभा चुनावों से ज्यादा तो है ही, पिछले लोकसभा चुनाव की अपेक्षा भी ज्यादा है। 2010 में इन 49 सीटों पर कुल मिलाकर करीब 51 फीसदी मतदान हुए थे। जाहिर है, इस बार मतदान 6 फीसदी ज्यादा हुए। 2014 के लोकसभा चुनाव में मतदान का प्रतिशत 56 था। यानी लोकसभा का मतदान प्रतिशत भी इस बार बिहार विधानसभा के लिए हुए चुनाव के मतदान फीसदी के सामने कम साबित हो गया, जबकि पिछली बार नरेन्द्र मोदी की लहर चल रही थी। इस बार चुनाव प्रचार के दौरान किसी तरह की लहर नहीं दिखाई पड़ रही थी।