राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी की छवि आरक्षण विरोधी की रही है। 1990 में लालकृष्ण आडवाणी द्वारा निकाले गए रथयात्रा को आरक्षणवादियों ने मंदिर बनाने का नहीं, बल्कि आरक्षण मिटाने का अभियान बताया था। यात्रा के ठीक पहले मंडल आयोग की कुछ सिफारिशों को मानते हुए तत्कालीन वीपी सिंह सरकार ने ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण सरकारी सेवाओं में देने की घोषणा की थी। तब उसके खिलाफ बहुत बड़ा आंदोलन शुरू हो गया था। उसके पक्ष में भी आंदोलन होने लगे थे और तब भारतीय जनता पार्टी के ओबीसी सांसद अपनी जीत के प्रति सशंकित हो गए थे, क्योंकि उनकी पार्टी वीपी सिंह सरकार के उस घोषणा का विरोध कर रही थी। पार्टी मंे विभाजन की स्थिति भी पैदा हो रही थी। सच तो यह है कि बिहार के अनेक भाजपा विधायक पार्टी की आरक्षण विरोधी के कारण पार्टी को छोड़ भी चुके थे। यही कारण है कि भाजपा ने जाति के आधार पर बंटे अपने सांसदों और विधायकों को एकजुट रखने के लिए आरक्षण से भी ज्यादा संवेदनशील मंदिर- मस्जिद मसले को लेकर अपना अभियान तेज कर दिया। उस समय वीपी सिंह की सरकार उसके समर्थन से चल रही थी। वह उस सरकार से समर्थन वापस लेना चाहती थी, लेकिन यदि वह मंडल का विरोध करते हुए समर्थन वापस लेती, तो उसके ओबीसी और दलित सांसद पार्टी छोड़कर वीपी सिंह के खेमे में जा सकते थे। इसलिए उसने मंदिर निर्माण के मसले पर ही वीपी सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला किया और उसके कारण ही लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा निकाली गई थी।
लेकिन उस अभियान ने भाजपा और उसकी मातृसंस्था आरएसएस की छवि आरक्षण विरोधी की बना दी। लेकिन ओबीसी और दलित नेताओं के भ्रष्टाचार, जातिवाद और भ्रष्टाचार के कारण जब उनसे ओबीसी मतदाताओं का मोह समाप्त हुए, तो वे मतदाता किसी अन्य विकल्प के अभाव में भाजपा की ओर मुखातिब होने लगे। उन्हें अपने साथ लेने के लिए भाजपा ने अनेक ओबीसी नेताओं को आगे बढ़ाया। नीतीश कुमार को भाजपा ने ही मुख्यमंत्री बनाया। कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल गौर, शिवराज सिंह चैहान और नरेन्द्र मोदी जैसे ओबीसी राजनेताओं को मुख्यमंत्री बनाया गया। नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रोजेक्ट किया गया। वे प्रधानमंत्री भी बन गए, लेकिन संघ और भाजपा के आरक्षण विरोध की छवि फिर भी समाप्त नहीं हुई। हां, कुछ कमजोर जरूर हुई।
कहते हैं कि शंकाशील मन में प्रेम की बात भी शंका उत्पन्न करती है। यही मनमोहन भागवत के बयान से हो रहा है। वे आरक्षण नीति की समीक्षा करके इसे और ज्यादा धारदार बनाने की बात कर रहे है, ताकि जिन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए इसे लागू किया गया था, वह जल्द पूरा हो और आरक्षण के कारण समाज में जो तनाव हो, उससे जल्द से जल्द मुक्ति मिले। लेकिन जब किसी का मन शंकाशील हो, तो फिर अर्थ का अनर्थ हो जाता है। लालू यादव बिहार चुनाव में इसी का फायदा उठाने की कोशिश कर रहे हैं।
मोहन भागवत को भी इस बात का अहसास तो होगा ही कि उनके संघ और भाजपा के प्रति ओबीसी और दलित समुदाय में आरक्षण को लेकर क्या विचार है। उनके बयान का तरह तरह से मतलब निकाला जाएगा, यह भी उनको पता है और इसके कारण बिहार चुनाव मंे भाजपा की स्थिति खराब होगी, इसका अहसास भी उनको रहा होगा। फिर भी उन्होंने इस तरह का बयान क्यों दिया, यह तो संघ के अंदर के लोग ही बता सकते हैं।
जहां तक नरेन्द्र मोदी की बात है, तो उन्हें आरक्षण समर्थकों और आरक्षण विरोधियों दोनों तरह के लोगों का समर्थन प्राप्त है। इसलिए उनके लिए बेहतर यही होगा कि वे आरक्षण से संबंधित किसी बहस में नहीं पड़ें, लेकिन मोहन भागवत के उस बयान ने प्रधानमंत्री मोदी को इस पर अपना मुह खोलने के लिए बाध्य कर दिया। हालांकि उन्हें समझदारी दिखाते हुए अपना वह बयान बिहार की किसी चुनावी सभा में नहीं, बल्कि मुृबई में अंबेडकर से संबंधित एक समारोह के दौरान दिया। बिहार की चुनावी सभा में वह बयान देने से वहां स्थिति बिगड़ सकती थी, क्योंकि मोदी द्वारा संबोधित सभा में भारी भीड़ उमड़ती है और उस भीड़ में आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी दोनों आकर मोदी समर्थक नारे लगाते हैं। उस सभा मे मोदी का आरक्षण पर दिया गया कोई भी बयान किसी अप्रिय घटना का कारण बन सकता था। लेकिन मोहन भागवत की आरक्षण की समीक्षा की मांग ने नरेन्द्र मोदी को एक ऐसी स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया, जिसमें वे आरक्षण को लेकर दो विरोधी खेमे में बंटे लोगों में से किसी एक को नाखुश कर दें।
इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि मोहन भागवत के बयान ने बिहार में चुनाव अभियान की दिशा बदल दी है। इसके कारण लालू यादव को नई ताकत मिल गई है। उनकी आक्रामकता बढ़ी है और पूरे ओबीसी समुदाय में तो नहीं, लेकिन अपनी जाति के यादवों के बीच उनकी स्थिति और भी मजबूत हो गई है। पहले लग रहा था कि बिहार के 50 फीसदी यादव ही लालू के कहने पर नीतीश के नेतृत्व वाले गठबंधन को वोट डालेंगे, लेकिन अब 80 से 90 फीसदी यादव लालू के पीछे हो गए हैं। यह भारतीय जनता पार्टी के खराब स्थिति है। यदि वहां भाजपा जीती, तो वह नरेन्द्र मोदी की जीत होगी और यदि हारी तो उसके लिए मोहन भागवत का वह बयान जिम्मेदार होगा। (संवाद)
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मोहन भागवत की आरक्षण पर समीक्षा की मांग
आखिर क्या मंशा है संघ प्रमुख कीे?
उपेन्द्र प्रसाद - 2015-10-18 03:10
बिहार में हो रहे विधानसभा चुनाव के दौरान संघ प्रमुख मोहन भागवत का आरक्षण नीति की समीक्षा करने का बयान लालू के लिए वरदान साबित हो रहा है। इसके कारण वे पूरी तरह से लय में आ गए हैं और बिहार विधानसभा चुनाव को अगड़ा बनाम पिछड़ा और आरक्षण समर्थन बनाम आरक्षण विरोध बनाने में लग गए हैं। सवाल उठता है कि इस तरह का बयान आखिरकार मोहन भागवत ने दिया ही क्यों? वैसे उन्होंने कभी नहीं कहा कि आरक्षण समाप्त किया जाना चाहिए अथवा आरक्षण का आधार आर्थिक कर दिया जाना चाहिए, लेकिन आरक्षण का मामला इतना संवेदनीशील है कि इसकी चर्चा करते समय लोग तर्क का नहीं भावना का सहारा लेने लगते हैं। आरक्षण समर्थकों के लिए भी यह सच है और आरक्षण विरोधियों के लिए भी यही सच है।